Friday, November 2, 2018

विजेंद्र अनिल : लाली हम भोर के


विजेंद्र अनिल उन रचनाकारों में से हैं जिनसे मेरा पहला परिचय पत्रिकाओं या किसी साहित्यिक आयोजन के जरिए नहीं हुआ। भोजपुर के एक गांव में मेरा बचपन गुजरा। वह दौर भोजपुर में एक नए किस्म के किसान आंदोलन के उभार का था जिसमें खेतिहर मजदूर अगली कतार में नजर आते थे। उनके मुंह से ही मैंने बार-बार ‘अब ना करबि हम गुलमिया तोहार, चाहे भेज जेहलिया हो’, ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो अजदिया हमरा के भावेला‘, ‘समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई’, केकरा से करीं अरजिया हो सगरे बटमार’, ‘रउरा शासन के बड़ुए ना जवाब भाई जी’, ‘आइल बा वोट के जबाना हो पिया मुखिया बनिजा’, ‘केकरा से करीं अरजिया हो सगरे बटमार’ जैसे गीत सुने। उसी दौरान पता नहीं कब, कैसे पता चला कि इन गीतों को विजेंद्र अनिल और गोरख पांडेय ने रचा है। फिर यह भी मालूम हुआ कि विजेंद्र अनिल एक शिक्षक हैं, अपने गांव के स्कूल में ही पढ़ाते हैं। हमारे किशोर मन के लिए यह कम रोमांच की बात नहीं थी, क्योंकि आम तौर पर शिक्षक या सरकारी कर्मचारी सीधे इस आंदोलन से अपना संबंध जाहिर नहीं करते थे। 

ऐसा संयोग रहा कि काॅलेज के जमाने में जब सांस्कृतिक गतिविधियों से मेरा जुड़ाव हुआ, तब तक कई धरेलू परेशानियों और तबादले के कारण विजेंद्र अनिल के लेखन की गति में एक ठहराव आने लगा था। लेकिन इसके बावजूद हमारे बीच उनकी अनिवार्य उपस्थिति थी। अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रही जनता के अभिन्न साथी लेखक के रूप में वे तब भी हमारे प्रेरणास्रोत थे। हमने उनसे सीखा कि लेखक का पहला फर्ज है गरीब मेहनकश जनता की जिंदगी को बदलने के लिए लिखना, एक बेहतर दुनिया को रचने में अपनी उर्जा लगाना। आरा में आयोजित होने वाले साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में वे अक्सर समय निकालकर चले आते थे। जब भी उनसे मुलाकात हुई, तब उन्होंने कहा कि दिमाग में बहुत सारी चीजें चल रही हैं, फिर नए सिरे से लिखना शुरू करूंगा। यह जरूरत वे क्यों महसूस कर रहे थे इसे 2006 में ‘साहित्य और किसान’ विषय पर दिए गए उनके वक्तव्य से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था कि ‘‘यह विडंबना है कि हमारा लेखक समुदाय मेहनतकश वर्ग से कटा हुआ है। उसे ठीक से पहचानता नहीं। उसे आम जनता के जीवन की समस्याओं की ठीक-ठीक समझ नहीं है। वह आजकल उसी को याद करता है जिससे उसकी रोजी-रोटी चलती है। वह जनता के बीच में नहीं है। ....किसान भारी असुरक्षा और शोषण के बीच जी रहे हैं। मगर उनका शोषण करने वालों के खिलाफ खड़ा होना तो दूर, आज लेखक वहां की विसंगतियों को भी नहीं दिखा पा रहा है।’’ यकीनन वे फिर से आम आवाम, खासकर ग्रामीण मेहनतकश जनता की उन सच्चाइयों को सामने लाना चाहते थे, जिनके लिए आज की सूचना क्रांति की दूनिया में जगह कम है और जिनसे हिंदी लेखक भी किनारा करते जा रहे हैं। जैसा कि उनके साथी कथाकार सुरेश कांटक बताते हैं कि अक्टूबर 2007 में हुई एक मुलाकात में उन्होंने लेखन संबंधी अपनी कई योजनाओं से अवगत कराया था। लेकिन नवंबर आया, पहला दिन बीता। दूसरे दिन की सुबह हुई और एक वज्रपात-सा हुआ। दोपहर तक उनके चाहने वालों को यह दुखद खबर मिली कि जबर्दस्त बे्रन हैमरेज के कारण वे कोमा में चले गए। उसके अगले दिन यानी 3 नवंबर की रात पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान के इमरजेंसी वार्ड में उनका निधन हो गया।

ग्यारह साल बीत चुके हैं, जमीनी आंदोलनों की आंच और अनुभव से तपा वह सांवला चेहरा और उसकी आत्मीय मुस्कान हमारी स्मृतियों में आज भी मौजूद है। और हमारे बीच मौजूद हैं उनके जनगीत भी, जो आज भी जनता की पीड़ा, आकांक्षा और आक्रोश को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। उनकी कहानियां आज भी लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को उनके सामाजिक-राजनीतिक फर्ज की याद दिला रही हैं।

21 जनवरी 1945 को आज के बक्सर जिले के बगेन गांव में विजेंद्र अनिल का जन्म हुआ था। उन्होंने अपने जीवन में दर्जनों कहानी संग्रह या उपन्यास नहीं लिखे। जबकि 18 साल की उम्र में ही उनका पहला कविता संग्रह ‘आग और तूफान’ प्रकाशित हो चुका था, जिसमें भारत-चीन युद्ध के समय प्रतिक्रिया में लिखी गई अंधराष्ट्रवादी भाव वाली कविताएं भी थीं। मगर वे उस राह पर आगे नहीं बढ़े। जैसे जैसे उनकी रचनाओं में देश के मजदूर-किसान नायक बनकर आने लगे वैसे वैसे राष्ट्र और दशभक्ति के प्रति उनकी अवघारणा बदलती गई। कविता संग्रह के बाद 1964 में उनका एक सामाजिक उपन्यास ‘उजली-काली तस्वीरें’ छप कर आया। उसके बाद 1967 में ‘एगो सुबह एगो सांझ’ नाम से भोजपुरी उपन्यास प्रकाशित हुआ, जिसे भोजपुरी का तीसरा उपन्यास माना जाता है। उसके बाद 1968 से 1970 तक उन्होंने अपने गांव से ही ‘प्रगति’ नाम की पत्रिका का प्रकाशन किया। ‘मंजिल कहां है’ उनकी पहली कहानी थी, जिसका शीर्षक उनके रचनात्मक सफर के लिहाज से बड़ा अर्थपूर्ण है। उनकी मंजिल नाम, यश, पद-पुरस्कार, अकादमियों और सत्ता के गलियारे नहीं थे। उनकी मंजिल थी वह दलित वंचित खेतिहर जनता, जिसके राजनीतिक-सांस्कृतिक जागरण के लिए उन्होंने अपनी पूरी रचनात्मक ताकत लगा दी। यही वह मकसद था जिसके कारण वे रचनाओं की सहजता और लोकप्रियता के बेहद आग्रही थें। यह आग्रह उनके लेख ‘लोकप्रिय साहित्य और जनवादी साहित्य’ में बखूबी देखा जा सकता है।

विजेंद्र अनिल की जिंदगी में उनके दो ही कहानी संग्रह प्रकाशित हो पाए- 1984 में ‘विस्फोट’ और 1989 में ‘नई अदालत’। अभी उनकी अनेक कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाआंे में बिखरी हुइ्र्र हैं। विजेंद्र अनिल की कहानियां बिहार में क्रांतिकारी जनराजनीति के निर्माण की वजहों और उसके विकास की प्रक्रिया के ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह है। मगर इनमें विचारघारा का स्थूल प्रचार नहीं हैं। पहले संग्रह की जन्म, बैल, दूध, आधे पेट, माल मवेशी आदि कहानियों में तो बस बदहाली का यथार्थ चित्र ही पेश कर दिया गया है। इन कहानियों को पढ़ते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह सूदखोरों और जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न, सामाजिक भेदभाव, महाजनों की धोखाधड़ी और अपनी निर्धनता के कारण गांव के गरीब मेहनतकश लोग लड़ाई के लिए संगठित हुए होंगे। उनके पहले संग्रह में ‘विस्फोट’ ही एकमात्र ऐसी कहानी है जिसमें गरीबों की क्रांतिकारी पार्टी बनने की सूचना मिलती है। यहां माक्र्वेज जैसे लेखकों को पढ़कर किसी अविश्वसनीय घटना या नायक को नहीं गढ़ा है कहानीकार ने। कहीं कोई अतिरंजना नहीं है। ‘विस्फोट’ तो भूस्वामियों के आतंक के खिलाफ चेतावनी भर है। आगे चलकर जब भूस्वामियों, महाजनों ,पुलिस और सरकार की सम्मिलित शक्ति के समानांतर जनप्रतिरोध संगठित होने लगा, तब विजेंद्र अनिल ने जो कहानियां लिखीं, वे ‘नई अदालत’ संग्रह में संकलित हैं। जनप्रतिरोध बढ़ता है तो सामंतों और पुलिस की बर्बरता भी बढ़ती है। ‘हमला’ और ‘जुलूम की रात’ जैसी कहानियां इसी की बानगी हैं। यह संघर्ष अपने जीवन के प्रश्नों से जूझ रहे पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय लोगों को भी अपनी ओर खींचता है। ‘कामरेड लीला’, ‘अपनों के बीच’ और ‘फर्ज’ में लीला, मास्टर सुखदेव और मास्टर अखिलेख ऐसे ही चरित्र हैं जो अपनी मुक्ति के लिए भी गरीब-मेहनतकशों की न्यायसंगत लड़ाई में शामिल होते हैं। जाहिर है जनता के हाथ सिर्फ ‘नई अदालत’ कहानी जैसी जीत ही हाथ नहीं लगती, उसकी संगठित ताकत को खत्म करने के लिए शोषक वर्ग निरंतर साजिशें भी रचता रहता है। ‘अमन चैन’ और ‘रात विरात’ तथा विजेंद्र अनिल की प्रतिनिधि कहानी ‘फर्ज’ इस संघर्ष की तीव्रता और जटिलता को भी सामने लाती है। मगर ये कहानियां सिर्फ लड़ाइयों की दास्तान ही नहीं हैं। ये कहानियां 1970 और 1980 के दशक के गांवों के यथार्थ का बारीक और विस्तृत विवरण पेश करती हैं। किसी श्वेत-श्याम कला फिल्म की तरह। इन कहानियों के आइनें में आज के गांवों को देखा जाए तो पता चल जाएगा कि उपर उपर दिखने वाले बदलावों के बावजूद भीतर यातना और अभाव का सिलसिला किस तरह जारी है। खेत मजदूर और मेहनतकश किसान ही तो विजेंद्र अनिल के नायक हैं। जिनके लिए उन्होंने कई सालों की रचनात्मक चुप्पी तोड़ते हुए 2004 में पांच नए गीत लिखे थे।

‘फर्ज’ कहानी को विजेंद्र अनिल उपन्यास का रूप देना चाहते थे, पर इसका वक्त ही उन्हें नहीं मिला। वक्त भी कैसे मिलता उस उपन्यास को तो वे खुद ही जी रहे थे। ‘फर्ज’ एक तरह से विजेंद्र अनिल के रचनात्मक मकसद को समझने का सूत्र उपलब्ध कराता है। गांव में जमीन के लिए लड़ाई चल रही है लेकिन बड़ी जाति के सामंत किसी कीमत पर उस पर अपना कब्जा बरकरार रखना चाहते हैं। उन्होंने एक निजी सेना बना रखी है और चाहते हैं कि मास्टर अखिलेख वर्मा उसमें शामिल हो जाएं। वे मास्टर को याद दिलाते हैं कि उनका जन्म एक उंचे खानदान में हुआ है। उससे भी मास्टर गरीबों की हिमायत नहीं छोड़ते, तो उन्हें धमकी दी जाती है। मास्टर द्वंद्व से धिर जाते है- एक ओर उसूल, ष् शहीदों का सपना, बेवश-बेसहारा लोगों की रोटी और आजादी का सपना दूसरी ओर घर-परिवार की फिक्र। अगर उसे कुछ हो गया तो क्या होगा उसके घर का? उसकी पत्नी कैसे रहेगी? उसके बच्चे किस किनारे लगेंगे, तो क्या करे वह? अपनी इच्छा के विरुद्ध शामिल हो जाए शिवरतन के गिरोह में? उन लुटेरों और आदमखोरांे से कदम-से-कदम मिलाकर चले जो अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए लगातार मनुष्यता का गला घोंट रहे हैं।’’ आखिरकार वे निर्णय पर पहुंचते है- ‘‘नहीं...नहीं.., हरगिज नहीं। वह ऐसा नहीं कर सकता। वह अपने उसूलों का गला नहीं घोट सकता। अपने और अपने बाल-बच्चों की सुख-सुविधा के लिए वह हजारों लाखों-करोड़ों मेहनतकशों की आशाओं-आकांक्षाओं का खून नहीं कर सकता।’ कहानी के आखिर में पुलिस इन्सपेक्टर मास्टर अखिलेश को आंदोलन से दूर रहने के लिए समझाता है और जब वह नहीं मानते, तो वह सवाल करता है- ‘‘आखिर आप क्यों उग्रपंथियों का साथ दे रहे हैं? उनसे आपको क्या हासिल होगा?’’ 

इसका मास्टर जो जवाब देते हैं, वह गौर करने लायक है- ‘‘....मैं नहीं समझ पाता कि आप किन लोगों को उग्रपंथी कह रहे हैं। ....क्या अपने हक के लिए आवाज उठाने वाले लोग उग्रपंथी हैं?.....तो फिर, गरीबांे को सताकर, उनके खून-पसीने की कमाई को लूटकर अपनी तिजोरियां भरनेवाले शरीफजादे और काले कानूनों, फौजी बूटों और बंदूकों के बल पर शासन करने वाले लोग...’’ निश्चित तोैर पर शासन-प्रशासन से ये सवाल पूछने का वक्त बीत नहीं गया। बल्कि आज ऐसे सवाल पूछने की जरूरत लगातार बढ़ती गई है। ऐसी कहानियां अपने पाठकों को ऐसे सवाल करना सिखाती हैं। वाकई विजेंद्र अनिल ने न केवल अपने रचनाकार दोस्तों को एक्टिविस्ट बनने की प्रेरणा दी बल्कि पाठकों को भी एक्टिविस्ट बनाया। उनकी शवयात्रा में जिस तरह से हजारों लोग शामिल हुए, वैसा उदाहरण अपने देश में बहुत कम मिलता है। जिनके लिए उन्होंनें गीत लिखे, कहानियां लिखी, वे सब उन्हें सचमुच जानते और मानते थे, यह साबित हुआ।

विजेंद्र अनिल खुद को महान साहित्यकार प्रेमचंद की परंपरा से जोडते थे। 1980 में उन्होंने प्रेमचंद पर अपने गांव में एक बड़ा आयोजन किया था, जिसमें ‘कफन’, ‘पूस की रात’ और ‘सवा सेर गेहूं’ कहानियों का उन्होंने खुद भोजपुरी में नाट्य रूपांतरण करके गांव के नौजवानों के साथ मिलकर उनका मंचन किया था। डाॅ. मैनेजर पांडेय ने उनके दूसरे कहानी संग्रह की भूमिका में लिखा है कि विजेंद्र अनिल की कहानियों में दृष्टि और दिशा वही है, लेकिन नए संदर्भ और नई प्रखरता और विशिष्टता के साथ। कोई चाहे तो यह तलाश सकता है कि सीधे-सीधे साम्राज्यवाद विरोध का कोई प्रसंग विजेंद्र अनिल के यहां नहीं है। मगर वे उन लेखकों में से नहीं थे जो अमेरिका के खिलाफ तो खूब चिल्लाते है, लेकिन साम्राज्यवादी शक्तियों को जो मजदूर-किसान जनता निर्णायक चुनौती देगी, उसकी बदहाली, दमन और कत्लेआम पर चुप्पी साधे रहते हैं। प्रेमचंद पर लिखे एक भोजपुरी गीत में विजेंद्र अनिल ठीक इसके विपरीत किसानों के जागरण के एजेंडे को साम्राज्यवाद विरोध से जोड़ते हैं और प्रेमचंद से हर किस्म के अन्याय के विरोध की प्रेरणा ग्रहण करते दिखते हैं-

अबहीं ना देस के बिपतिया घटल बिया 

सुखी ना किसान-मजदूर मोरे सथिया। 

बेलछी, नरायनपुर, पिपरा आ पारस बिगहा

जुलुम के कहता कहानी मोरे सथिया। 

दुनिया में बढ़ल आवे, समराजी पंजवा हो

देसवा में मचल हहकार मोरे सथिया। 

जहां-जहां होत बा बिरोधवा जुलुमवा के

उहां बाड़न प्रेमचंद ठाढ़ मोरे सथिया। 


आज कोई चाहे तो बेलछी, नरायनपुर, पिपरा बिगहा की जगह दूसरे नाम रख दे सकता है जहां जमीन और अपने रोजगार के लिए लड़ रहे किसानों का कत्लेआम किया गया है। यहां एक बात और ध्यान देने लायक है कि विजेंद्र अनिल ने जनभाषा में गीत रचे, उनकी कहानियों में भोजपुरी के शब्दों की भरमार है, लेकिन इससे अंततः हिंदी ही ताकतवर बनती है। विजेंद्र अनिल ने किसी बोलीवाद का पक्ष नहीं लिया। यह प्रवृत्ति भी उन्हें प्रेमचंद से जोड़ती हैं। विजेंद्र अनिल ने गजल और कविताएं भी काफी लिखी हैं। ‘मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना’ और ‘लिखने वालों को मेरा सलाम, पढ़ने वालों को मेरा सलाम’ जैसी उनकी गजलों को संस्कृतिकर्मियों द्वारा खूब गाया गया है। उनकी कविताएं बहुत कम प्रकाशित हो पाई। उनके भोजपुरी जनगीतों के दो संग्रह ‘जनता के उमड़ल धार’ और ‘विजेंद्र अनिल के गीत’ की तो आज तक मांग रहती है। अगर उनकी समग्र रचनाएं प्रकाशित हो सकें तो यह महत्वपूर्ण काम होगा। 

विजेद्र अनिल ने एक वैकल्पिक जनसंस्कृति के निर्माण का काम किया। वैकल्पिक पत्रिकाओं को उनकी रचनात्मकता का भरपूर सहारा मिला। एक लेखक के बतौर उन्होंने कभी भी सत्ता के केंद्रों की ओर नहीं देखा। विजेंद्र अनिल उन लेखकों में से नहीं थे, जो दूर की क्रांतियों और जनसंघर्षों का तो बहुत गान करते हैं, पर अपने आसपास चल रहे आंदोलनों के बारे में सायास चुप्पी साधे रहते हैं। उन्होंने सचमुच लेखकों के लिए फर्ज की एक कसौटी गढ़ दी है। विजेंद्र अनिल ने विचार और कर्म के स्तर पर इसे खुद भी साबित किया, यह दुहराने की जरूरत नहीं है। विजेंद्र अनिल न केवल बिहार नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में से एक थे, बल्कि अपने गांव में भी उन्होंने लेखक कलाकार मंच बनाया था, जिसके कारण सामंती ताकतों ने उनका विरोध किया। उन्हें प्रलोभन दिए गए कि पैसे ले लो पर ऐसी संस्था न चलाओ, ऐसे गीत न लिखो। फिर धमकियां मिलीं और उनका हाथ तोड़ दिया गया। लोकिन उनकी लेखनी नहीं रुकी। किसी लेखक की ताकत का अंदाजा इससे भी पता चलता है कि उसके दुश्मन उससे कितना डरते हैं। अकारण नहीं है कि प्रेमचंद कइयों की आंख की आज भी किरकिरी बने रहते हैं। विजेंद्र अनिल के बारे में एक दिलचस्प प्रसंग याद आ रहा है। सन 2001 में पटना के एक अखबार में जब उनसे की गई एक बातचीत छपी, तो भूस्वामियों की तीखी प्रतिक्रिया आई- ‘मस्टरवा फिर लिखे लागल का, लागता चैन से रहे ना दिही’। 

विजेंद्र अनिल को श्रद्धांजलि देते हुए कहानीकार नीरज सिंह ने सही ही कहा था कि उनका गांव सामंतवाद का गढ़ था, जहां रहते हुए उसके खिलाफ लिखना बहुत साहस का काम था। बेशक लेखक के पास यह साहस कहां से आता है यह जानने के लिए भी विजेंद्र अनिल को जानना और उनकी रचनाओं को पढ़ना जरूरी है। खासकर इस दौर में जब मनुष्यता विरोधी, लोकतंत्र विरोधी ताकतें चारों ओर तांडव मचाए हुए हैं तब इस लेखकीय साहस को पाना बेहद जरूरी है। 
-सुधीर सुमन

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