Monday, November 5, 2018

स्मरण जनकवि 'अकारी : संतोष सहर


स्मरण जनकवि 'अकारी' - 1
भोजपुरी के जनकवि दुर्गेंद्र अकारी की कुछ अप्रकाशित रचनाएँ मिली हैं. वे खुद को एलएलपीपी (लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर) भी कहते हैं ''आइसीएस आइपीएस बा दोषी कि एलएलपीपी अकारी''. एक ही गीत दर्जनों बार रफ/ फेयर के साथ. इस जूनून को सलाम करते हुए मुझे कहना है कि वे अतुलनीय हैं. उनकी अनुभूति प्रत्यक्ष व प्रामाणिक है और विचार क्रन्तिकारी. भोजपुरी व मगही समेत हमारी जनभाषाओं में उनके जैसा कोई नहीं है. 'बिहार के धधकते खेत खलिहानों की दास्तान' अधूरी रहती अगर उसमें ' कहत अकारी बिहारी मजदूर प, शत बाड़ ए भइया कवन कसूर प' जैसा स्वर न होता.
उनका 'क्राफ्ट' इतना मौलिक व् विविधतापूर्ण कि अचरज होता है. सिर्फ दो उदाहरण देता हूँ. पहला उनका गीत 'चाहे जान जाये' देखिये--
चाहे जान जाये, चाहे प्राण जाये
मगर तुमको हटाकर दमे-दम लूंगा. (यह खड़ी बोली में है)
हई बरियारी देख तनिको ना सहाता
केहू मरे भूखे केहू बइठल बइठल खाता. (यह भोजपुरी है)
और पूरा गीत इसी क्रम में पूरा होता है.
मुझे बेगम अख्तर का गाया याद आया--
हमरी अटरिया पे आओ सांवरिया
देखा देखी बलम होइ जाये
तसव्वुर में चले आते हो कुछ बातें भी होती हैं
शबे फुरकत भी होती है मुलाकातें भी होती हैं.
कथात्मक/वर्णनात्मक शैली में लिखी हुई उनकी एक अप्रकाशित गीत रचना (सम्भवतः 80- 81 में रचित) 'लड़ल बाघ से बकरिया' बेजोड़ है. यह अदम गोंडवी के 'मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको' से बहुत आगे ले जाती है. देखिये--
बाघवा गरजे जइसे गरजेला दरिया
बकरी के अंखिया से चले पवनरिया
बाघ कभी बच्चा प नजरिया
लड़ल बाघ से बकरिया........
गरजि के बाघवा बकरिया प छरके
पेट में घुसली बकरी एक डेग बढिके
पँहथि के कइली पटरिया
लड़ल बाघ से बकरिया.........
बाघवा के पेटवा में घुसली बकरिया
ढोंढ़ी में लगा के सींग देली झकझोरिया
फाटि गइल बाघ के धोकरिया
लड़ल बाघ से बकरिया..........
एहि विधि दुखवा गरीबवन के जाई
दूसर कही का, केतना ले समझाई
अकिलनगर (एरौड़ा) के अकरिया
लड़ल बाघ से बकरिया.
यह रूपक एक ही साथ कितने विमर्श को, कितनी लड़ाईयों को समेट लेता है?
'टूटल टँगरी अकारी देखावे' जेल और पुलिस दमन की यह दास्ताँ उनके संग्रह ' चाहे जान जाये,' में शामिल है. इसी कड़ी का एक छूटा हुआ गीत---
जेकरा कम्मर ना चट बरतन बा, रे लोगवा जेहल में बन (बन्द) बा ना!
पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ की पूर्व अध्यक्ष साथी मोना दास का एक शोध पत्र देखा. मुझे यह देखकर बहुत ख़ुशी हुई कि उसमें जनकवि अकारी को रमताजी, विजेंद्र अनिल और गोरख पांडेय की कतार में रखकर उनकी रचनाओं पर विचार किइस गया है. लेकिन, यह राजनीति शास्त्र का शोध पत्र है--''कल्चरल फॉर्म्स इन पॉलिटिकल मोबिलाईजेशन: ए केश स्टडी ऑफ़ भोजपुरी फोक सांग्स इन नक्सलाइट मूवमेंट'

स्मरण जनकवि 'अकारी' - 2 :
'लोहे का स्वाद' जानने वाला कवि
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'अकारी' इस वजह से भी खास हैं कि उनकी रचनाएँ 90 के दशक में शुरू हुए 'मंडल' व 'कमंडल' के उभारों के प्रति गरीब जनता का खरा व सच्चा स्वर हैं। वे सवाल उठाते हैं : 
'एह देश के प्रधानमंत्री अटल बा
भय -भूख-भ्रष्टाचार बढ़ल बा कि घटल बा?'
और आगे भारत में साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों का चरित्र निर्धारण करते हुए एक नया शब्द रचते है - 'चुनवटल बा' यानी चुनावबाज (जुमलाबाज) है। 
इसी क्रम में पोखरण विस्फोट पर उनकी रचना को भी देखा जा सकता है -
'घूस लेई-लेई बम फोड़ता मुदईया
महंगईया ए बड़का भईया बढ़ल बेशुमार'
लेकिन वे 90 के दशक से ही उभार में आये 'लालू-नीतीश' मार्का 'सामाजिक न्याय' के भी भ्रष्ट-दमनकारी-सामंत-पूंजीपति परस्त चरित्र की बखिया उधेड़ते हैं। 'सामाजिक न्याय के नारा', 'मंत्री रामलखन', 'का लत रखल बिगाड़ी ए लालू', 'काहे ले अइल लालू', 'मरलस लालू सरकार, गरीब रेला आदि रचनाएं बेलाग यह काम करती हैं। 'अपराधी के मंतरी बनावत बाड़ी' और 'सुशासन' भी क्रमशः राबड़ी व नीतीश को भी निशाने में लेकर रचित है।
'धूमिल' कहते हैं - 'लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।'
जनकवि 'अकारी' लोहे का स्वाद जानते हैं। चौदह साल की उम्र में ही बंधुआ मजदूर 'अकारी' श्रम व मजदूरी को एक अलग ही नजर से देखते हैं। उनका अनुभव प्रामाणिक है और उनकी संवेदना भी बेहद खरी है।
'मुकाबला' जो उनका पहला संग्रह है की कई रचनाएं - 'कहत अकारी', 'भईया बनिहार', 'मत कर भाई बनिहारी', 'कहवां ले कहीं विपतिया ए हाकिम', 'अब न करे मोर मनवा करे के मजूरी' आदि एक खेत मजदूर के कष्टमय जीवन की प्रामाणिक गाथा हैं। उनकी एक अप्रकाशित रचना ईंट-भठ्ठा मजदूर के रूप में उनके काम करने के अनुभव को बयान करती है - 'जाके खटेल ईंट खोला रे चोला।' एक अन्य शुरुआती गीत में धान रोपनी के कठिन श्रम का बयान है- 'घुमरिया हमरा आईल सजनी।' वे श्रम में क्रीड़ा जैसे आनन्द का वर्णन कभी नहीं करते। श्रम उनके लिए आनन्ददायक हरगिज नहीं है।
अनपढ़ 'अकारी' ने इंदिरा तानासाही के दौर में कलम उठायी थी। संघ-भाजपा-मोदी राज के इस अघोषित आपातकाल में उनको याद करने के खास मायने हैं।

स्मरण जनकवि 'अकारी' - 3

'दुखवा में जेलवा लागेला ससुरारी'

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जनकवि 'अकारी' अपनी रचनाओं में कई जगहों पर अनूठे लगते हैं। प्रायः ऐसा लगता है कि इस विषय पर इस तरह से कहना किसी दूसरे के लिए सम्भव ही नहीं जैसे कि वो कहते हैं। बेगारी पर उनकी रचना 'कहत अकारी बिहारी मजदूर पर' को ही देखिये। वे कहते हैं 'चिहुंकल मनवा करे ल तुहूँ कामवा'। 
आपातकाल में पुलिसिया हत्याकांडों पर लिखित 'बिहार सून कइलू इंदिरा' की यह पंक्ति भी देखिये -
'कुहुँक-कुहुँक घर तिरिया रोवे, 
बहिनी कहि-कहि भईया
बे बछरू के गइया भोंकरे
ओइसे भोंकरे मईया'
और 'बेटी की शादी' में वे भिखारी ठाकुर द्वारा स्थापित 'सोइरी में नीमक चटईत हो बाबूजी' से चली आ रही 'न्याय धारणा' को किस तरह पलट देते हैं और दहेज-दंड को बेटियों पर नहीं, उनके पिताओं पर डाल देते हैं:
'देखी के जवान बेटी, टिपी लेतीं आपन नेटी
तेजि देतीं बोलता परान हो सजनवा'
बात सिर्फ शब्दों के चयन या भावों की प्रस्तुति की ही नहीं बल्कि कहने के ढंग यानि अंदाजे-बयां की भी है। 'देखो! देखो! देखो! चँवरी के लीला देखो!' - चँवरी पुलिस फायरिंग कांड पर उनकी रचना इसकी अच्छी बानगी है।
अब जेल जीवन को ही देखिये। उनकी एक प्रकाशित रचना है : 'हितवा दाल रोटी पर हमनी के भरमवले बा' (चाहे जान जाये में संकलित)। इसमें वे शासक वर्ग (उसे हितवा कहते हुए) पर चुटीले तंज कसते हैं।
'जाने कबतक ले बिलमायी, हितवा देवे न बिदाई
बिदा रोक-रोक के नाहक में बुढ़ववले बा।
बीते चाहता जवानी, हितवा एको बात ना मानी
बहुते कहे-सुने से गेट प भेंट करवले बा।
बात करहूँ ना पायीं देता तुरते हटाई
माया मोह देखाके जियरा के डहकवले बा।'
लेकिन, अब तक अप्रकाशित इस गीत में जेल-जीवन का एक अलग ही तरह का बखान है:-
जेकरा कम्मर ना, चट्ट, बरतन बा,
रे लोगवा, जेहल में बंद बा ना!
केहू-केहू से बरतन ले के, कसहूं करत भोजन बा
जेल जीवन प ध्यान ना देता, केहिविधि नर तन बा
साग मूली लउका के भाजी, ओहि में देले बैंगन बा
भात कांच अधकच्चू रोटी, गुड़ चना मूल धन बा
तेरह रोग के एके दवाई, उहो ना मिलत खतम बा
एक रही इमली के पाता, एकरे प जीवन-मरन बा
जाड़ ठाढ़ गिरे ना सहाता, पछेया बहत कनकन बा
सुते-बइठे के जगहा ना, विपत में परल बदन बा
गन्दा बन्दी के संग शासक, रखले नित रसम बा
बात भइल दरखास दिआइल, तबो ना परिवर्तन बा
एक बात - एकता के बले, पूरा होई जो मन बा
कहे कवि दुर्गेन्द्र 'अकारी, टूटिहें गेट परन बा
photo by Nicolas Jaoul
'आपन बात' में वे अपनी जीवन गाथा सुनाते हैं। इसकी अंतिम पंक्ति है - 'नौ साल के उम्र में भैया भइलन पर आधीन, ए साथी अइसन मत होखो केकरो दिन-बेदिन'। विडम्बना देखिये कि पराधीनता की इस बेड़ी को काटने के लिए ही तो उन्हें बार-बार जेल जाना पड़ा। जैसा कि वे 'चाहे जान जाये' शीर्षक अपनी रचना में कहते हैं -
'अब ना सहाता दुख कहेलें अकारी
दुखवा में जेलवा लागेला ससुरारी'
और अंत में साथी Nicolas Jaoul के कैमरे की नज़र में 'अकारी'। अद्भुत तस्वीर। बहुत कुछ बोलती हुई।

(ये तीनों टिप्पणियां संतोष सहर के फेसबुक वाॅल से ली गई हैं। )

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