Friday, November 2, 2018

शाह चांद : रौशन है जिनसे अब भी इंकलाब की जमीन


का. शाह चांद मध्य बिहार के किसान आंदोलन के उन चौदह नेताओं में से एक थे, जिन पर टाडा के तहत फर्जी मुकदमा चलाया गया था।  उसी मुकदमे के तहत का. शाह चांद जेल में बंद थे, जहां 2 नवंबर 2014 को उनका निधन हुआ था। बचपन से ही का. शाह चांद के साथ घनिष्ठ रहे मो. ईसा कहते हैं कि वे आतंकवादी नहीं थे। कोई आतंकवादी खुद जाकर हाजिर नहीं होता। वे तो इस यकीन के साथ वहां गए थे, कि वे बेगुनाह हैं। लेकिन कोर्ट ने उनके विश्वासघात किया। उनकी पत्नी और बच्चे ही नहीं, बल्कि बिहार के अरवल जिले की ज्यादातर जनता उन्हें बेगुनाह मानती है। यहां के लोगों का यह कहना है कि दारोगा पुलिस की ही आपसी रंजिश में मारे गए थे। अब भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लोग राजनीतिक मंशा से किया गया अन्यायपूर्ण फैसला ही मानते हैं।

मिली जुली तहजीब की नुमाइंदगी

का. शाह चांद मुखिया बिहार और खासकर जहानाबाद-अरवल की गरीब-मेहनतकश जनता और लोकतंत्रपसंद-सेकुलर लोगों के अत्यंत प्रिय नेता थे। 1982 में उन्हें जहानाबाद-अरवल शांति समिति का सदस्य बनाए गया था। 1985 में वे आइपीएफ में शामिल हुए। शहाब याद करते हैं कि इस इलाके में कोई विवाद हुआ था। उसी समय कौशिक जी (तिलेश्वर कौशिक) आए और चांद साहेब यक-ब-यक आईपीएफ में शामिल हो गए। पूरा गांव आईपीएफ बन गया। एक घर भी बाकी न रहा। 

हिंदू-मुस्लिम की एकता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। एक बार भदासी पंचायत के ही मोथा गांव में इस पर बवाल हुआ कि अगजा (होलिका दहन) के गोईंठे को पैठानों ने चुरा लिया है। निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले एक नेता इसको शह भी दे रहे थे। का. शाह चांद को जैसे ही खबर लगी, पांच-छह लोगों को लेकर पठान टोली गए और उसके बाद अकेले यादव टोली में चले गए। वहां बोले कि अगर हमारा कोई आदमी गलती किया है, तो हमको मार दो और ले लो बदला। लोग बोलने लगे- ‘ना, ना मुखिया जी, ऐसे कैसे होगा?’ खैर, अंत में समझौता हुआ, और उन्होंने साथ जाकर अगजा फूंका। 

ऐसे तीन वाकयों के गवाह शहाब बताते हैं कि चांद साहेब खुद दूसरे संप्रदाय के लोगों के बीच चले जाते थे। यहां तक कि जिनसे लड़ाई रहती थी, उन दुश्मनों के सामने भी वे बेधड़क जाते थे। मुखिया रहे तब भी और नहीं रहे तब भी। कुछ कहने पर कहते- ‘नही जी हमको कौनो डर नहीं है, हम पहले उनसे ही मिलेंगे।’ मो. ईसा याद करते हैं कि जब कब्रिस्तान को लेके तनाव हुआ तब भी उन्होंने बातचीत करके विवाद को सलटाया। 

अरवल में दोनों संप्रदायों के बीच होली खेलने के सिलसिले को शाह चांद ने बढ़ावा दिया। 

का. व्यासमुनि सिंह याद करते हैं कि एक मुस्लिम व्यक्ति द्वारा एक नाबालिग बच्चे को प्रताड़ित किया गया था, कोयला चुराने के नाम पर कड़ी धूप में पक्का पर रखकर उसकी पिटाई की गई थी। उसी संदर्भ में पार्टी की ओर से एक पर्चा निकाला गया था, जिसमें कहा गया था कि बच्चे को प्रताड़ित करने वाला व्यक्ति काफिर है। ‘काफिर’ शब्द पर बड़ा बवाल हुआ। तब लोगों को समझाने के लिए का. शाह चांद और अनवर जी को बुलाया गया। और इन लोगों ने बढ़िया स्पष्टीकरण दिया। कलेर में एक बार सांप्रदायिक तनाव हुआ और दोनों ओर से मारपीट शुरू हो गई तो उस वक्त उन्होंने गांव-गांव दौरा किया। हिंदू-मुस्लिम दोनों गांवों में गए।

1994 में का. शाह चांद को इंकलाबी मुस्लिम काफ्रेंस का राज्य सचिव बनाया गया। 2002 में वे जहानाबाद-अरवल वक्फ बोर्ड के सदस्य बनाए गए।

भाकपा-माले के समर्पित कार्यकर्ता

भाकपा-माले जब भूमिगत थी, तभी का. शाह चांद इसके सदस्य बन गए थे। बतौर पार्टी सदस्य उन्होंने किसी भी काम से परहेज नहीं किया। पार्टी द्वारा दी गई हर जिम्मेवारी को कुशलता से निभाया। एक बार ठेला पर लादकर पार्टी के मुखपत्र लोकयुद्ध के नए-पुराने अंक लेकर बेचने निकल गए। फेरी वाले की तरह बोलते गए- ‘पढ़ो जी, तीन रुपया लाओ, पढ़ो।’ और अरवल में लोगों ने लोकयुद्ध की सारी प्रतियां खरीद लीं। वे अक्सर कहते थे कि लोकयुद्ध पुराना नहीं होता, हमेशा यह नया रहता है। 

उनके बेटे शाह शाद ने बताया कि जब वे गया जेल में थे तब राजद सांसद शहाबुद्दीन को भी वहां लाया गया था। शहाबुद्दीन वहां पहुंचा, तो इनको सलाम किया। इनके घर-परिवार के बारे में पूछा। उसने सहानुभूति दिखाते हुए कहा कि इतने दिनों से आप जेल में हैं, घर-परिवार कैसे चल रहा है, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कैसे हो रही है? उसने उनको आॅफर किया कि बेटी को मेडिकल काॅलेज और बेटे को इंजीनियरिंग काॅलेज में निःशुल्क दाखिला दिला देगा। का. शाह चांद ने दो टूक कहा कि आप तो हमारी पार्टी के विरोधी हैं, आपसे एक पैसा लेना भी मुनासिब नहीं है। 

व्यक्तिगत-पारिवारिक हित के लिए अपने विरोधी से कोई समझौता न करने वाले शाह चांद जनता के मुद्दे पर संयुक्त आंदोलनों की अगुवाई करने में कभी पीछे नहीं रहते थे। अरवल को जिला और अनुमंडल बनाने के लिए चले आंदोलनों में उनकी अहम भूमिका थी। 

शाह शाद फख्र से कहते हैं कि उनके पापा पर लेनदेन का कोई आरोप कभी नहीं लगा। उनके अनुसार उन्हें किसी खास चीज का शौक नहीं था। उन्होंने यही सिखाया कि ‘सच के साथ रहना, जमीर से कभी समझौता नहीं करना। तुम अकेले नहीं हो। पार्टी के साथ बने रहना, पार्टी ही तुम्हारी सबकुछ है।’

शाह शाद को अंदेशा है कि बेउर जेल में किसी ने उनके पापा का टार्चर किया था। कभी कभी उन्हें लगने लगता था कि उन्हें फांसी देने का फैसला सुनाया गया है। जबकि सच में ऐसा नहीं था। आखिरी दिनों में उन्हें  दौरा आने लगा था। उसमें अक्सर उन्हें लगता कि उन्हें फांसी पर चढ़ाने ले जा रहे हैं, और वे जोर से बोलने लगते- भाकपा-माले जिंदाबाद, माले का झंडा ऊंचा रहेगा।

आखिरी दौर में पीएमसीएच में उनसे मुलाकात करने वाले का. परवेज बताते है कि जब उनके परिजनों ने कहा कि जल्दी रिहाई हो जाएगी और अब आप अपने घर चलेंगे, तो उन्होंने कहा कि घर क्यों, मैं पार्टी आफिस जाऊंगा, घर भी आऊंगा, जैसे आता था। अभी मुझे पार्टी के लिए बहुत कुछ करना है। 

मौत बरहम है, खतरे से खेलना मेरा काम है

जेल जीवन की कठिनाइयों और गंभीर बीमारियों की प्रशासन द्वारा जानबूझकर की गई उपेक्षाओं ने का. शाह चांद के शरीर को जर्जर जरूर कर दिया था, लेकिन उनका कम्युनिस्ट मन पहले की तरह ही जीवटता से भरा हुआ था। अन्याय का उन्होंने आखिरी सांस तक विरोध किया। आखिरी दौर में पीएमसीएच में हथकड़ी लगे एक कैदी के साथ पुुलिस के सख्त व्यवहार को लेकर वे बिगड़ पड़े थे और उन्होंने कहा कि पुलिस जनता की सेवा के लिए होनी चाहिए, उस पर जुल्म ढाने के लिए नहीं। 

उनको जानने वाले हर व्यक्ति के पास अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले जननेता के रूप में उनकी कोई न कोई छवि है। लोग बताते हैं कि एक बार भदासी में मछली बेचने वाला एक आदमी बस से कुचल गया। शाह चांद ने तुरत सड़क जाम कर दिया। पुलिस ने लाठी चलाई, कई लोग घायल हुए। लेकिन शाह चांद दीवार की तरह सड़क पर अड़े रहे और अकेले गिरफ्तार हुए। 

एक बार सीआरपीएफ ने किसी रैली में इमामगंज जाते वक्त लोगों की पिटाई की थी। उसका अधिकारी पूछने लगा कि नेता कौन है? शाह चांद बेझिझक सामने आए और उससे जोरदार तरीके से बहस की। मो. ईसा के अुनसार वे अक्सर कहते थे कि ‘मौत बरहम है, खतरे से खेलना हमारा काम है।’

का. शाह चांद फखरूल होदा और साजिदा खातुन के चार बेटों में से मंझले बेटे थे। इनका जन्म फरवरी 1950 में हुआ था। शैक्षणिक प्रमाणपत्रों में इनका नाम कशफुल होदा था। चांद पुकार का नाम था, जिस नाम से ये आगे चलकर मशहूर हुए। अरवल की जनता आसमान के चांद से तुलना करते हुए उन्हें जमीन का चांद कहती थी, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं थी।


जनता के प्यारे चांद मुखिया 

जिस तरह से भोजपुर में का. रामनरेश राम को ज्यादातर लोग मुखिया जी कहकर संबोधित करते थे, उसी तरह का. शाह चांद ज्यादातर लोगों के लिए मुखिया जी ही थे। शाह चांद पहली बार 1978 में भदासी पंचायत के मुखिया बने थे। उस समय जिला प्रशासन ने उन्हें कम लागत में नहर निर्माण, साक्षरता कार्यक्रम और स्वास्थ्य अभियान के क्षेत्र में असाधारण कार्य के लिए सर्वोत्तम मुखिया के तौर पर सम्मानित किया। मो. ईसा मानते हैं कि मुखिया के रिजन में उन्होंने जनता को फूल की तरह रखा। वे योजना को जनता के बीच में रखते थे। जहां जिस चीज की जरूरत रहती थी, वहां खड़ा होकर काम कराते थे।

विजय सिंह उन्हें ऐसे मुखिया के बतौर याद करते हैं, जो जनप्रतिनिधियों और जनता के अधिकारों के प्रति बेहद सचेत थे। अरसे बाद 2001 में जब मुखिया बने तो पहली मीटिंग में उन्होंने पंचायती राज संबंधी कानूनों के बारे में धाराप्रवाह अंग्रेजी में बोलकर अधिकारी को चकित कर दिया था। अपने भाषणों में वे शेरो-शायरी का भी खूब इस्तेमाल करते थे। उन्होंने बैंक-ब्लाॅक में दलाली पर रोक लगा दी थी। गरीबों तक योजनाएं पहुंचे, इस पर उनका पूरा ध्यान रहता था। विंदेश्वरी प्रसाद सिंह के अनुसार शाह चांद ऐसे मुखिया थे जो भदासी से कभी पैदल तो कभी साइकिल से अरवल आते थे। 

उम्र के सत्तर साल पार कर चुके रामबाबू बताते हैं कि वे लड़ने के लिए हमेशा पहले तैयार रहते थे, जुलूस में भी आगे रहते थे। वे याद करते हैं कि पार्टी के कामकाज के सिलसिले में कई बार मुखिया जी अपने साथियों के साथ आते और खाना खिलाने को कहते। माड़, भात, अचार जो होता वही खा लेते। 

वे जोर देकर कहते हैं कि सन् 2000 में विधायक का चुनाव मुखिया जी जीते हुए थे, पर अखिलेश ने पैसे के बल पर हरा दिया। जबकि विजय सिंह के अनुसार वे अपने को महज मुखिया नहीं, बल्कि जिला और राज्य स्तर का नेता समझते थे। हिंदू-मुसलमान सबकी चाहत थी कि वे विधायक बनें। उनके निधन से जितना दुख मुस्लिम को हुआ उतना ही हिंदू को भी हुआ। अरवल ने एक अनमोल रत्न को खो दिया। 

विंदेश्वरी प्रसाद सिंह के अनुसार का. शाह चांद ने अरवल का इंटेलिजेंसिया को भाकपा-माले से जोड़ा था। उनमें दृढ़ इच्छाशक्ति थी और वे पार्टी के प्रति बहुत समर्पित थे। इतना ही नहीं, उनका मानना है कि शाह चांद ने घर-परिवार के स्तर पर भी क्रांतिकारी निर्णय लिए। पिता के विरोध के बावजूद उन्होंने मां द्वारा पसंद की गई गरीब घर की लड़की से शादी की। और उनका यह निर्णय सही रहा। उनकी बीवी ने अंत तक उनका साथ दिया। 


मेरे शौहर ने मुझे एक नजीर माना : जमीला खातून 

मैं जब ढाई साल की थी, तो मेरे फादर की डेथ हो गई थी। मैं गरीब परिवार की थी। इनके घर में सिर्फ इनकी नानी और मां चाहती थीं कि शादी हो। इन्होंने उनके पसंद का मान रखा। ये अपनी नानी के बहुत दुलारे थे। नानी ने अपनी सारी जायदाद इनके नाम से लिख दी थी, मगर इनकी ईमानदारी कि इन्होंने उसे अपनी मां के नाम लिख दिया। वे मां को भी बहुत मानते थे। नानी इनकी खैरियत को लेकर बहुत चिंता करती थीं। अक्सर कहतीं कि पार्टी में चला गया है, अल्ला मेरे चंदवा को बचा के रखना। ये भी अपनी नानी को बहुत मानते थे, जब भी घर आते तो उनके लिए कुछ न कुछ लेकर आते। इन्होंने वसीयत किहिन था कि इंतकाल के बाद उन्हें नानी के बगल में ही लिटाया जाए। ऐसा ही किया गया। 
कामरेड शाह चांद का परिवार

हमारी शादी उनके मुखिया बनने के बाद हुई थी। निकाह के बाद जो सेहरा पढ़ा गया, उसमें कुछ इस तरह के शब्द थे- हमारे कुंवारे मुखिया, हमारे सबसे बड़े दुलारे मुखिया। असल में उस समय किसी कुंवारे नौजवान का मुखिया बन जाना बड़ी बात थी। बाढ़ केे एक अमीर घर से इनके लिए रिश्ता आया था, लेकिन इन्होंने उसे ठुकरा दिया। शादी के पांच साल बाद अपनी जमीन में स्कूल बनवाने लगे। उसमें स्कूल वालों के कहने पर रातो-रात इन्होंने एक कमरा और बनवा दिया। तो समझिए कि बाबू जी से लड़ाई करके स्कूल बनवाया अपनी जमीन पर। इसके बाद बाप-बेटे के बीच तनाव पैदा हुआ और तनाव इतना बढ़ा कि इनको परिवार सहित बाहर निकाल दिया गया। 

जब मुखिया थे, तब हमें लगभग साढ़े तीन साल घर से बाहर रहना पड़ा। बड़ी बेटी का जन्म नैहर में हुआ। बाहर-बाहर वे आते, मुखिया का काम करते। उस वक्त मुखिया को आज की तरह बहुत फंड नहीं मिलता था। पंचायत में कुछ जो ठेकेदारी का काम आता था, उसे भी दूसरों को दे देते थे। उन्होेंने अपनी जमीन पर बसे लोगों को बासगीत का पर्चा दिया था। 

जब पार्टी का कामकाज बढ़ा तो कई बार 10-10 दिन गायब रहने लगे। मीटिंग होती तो नहीं आते थे, पर मीटिंग खत्म हो जाती तो अरवल से घर जरूर आ जाते थे। कई बार दस-दस, बीस-बीस लोग भी आते। घर में जो चीज नहीं होती, उसे खरीदकर लेते आते। हमलोग सबको खिलाते।

कई बार रात को चले जाते और मैं बस यही कहती कि संभल के जाइएगा। हमेशा येे कहते कि हम तुरंत वापस आते हैं। चिंता मत करो, हमारे बहुत लोग हैं। दो-तीन दूसरे केस मंे भी इनका नाम था। बार-बार पुलिस की छापामारी होती थी। मैं फाटक के पास ही सोती थी कि जब ये आवेंगे तो तुरत फाटक खोल देंगे। एक बार जब पुलिस ने छापामारी की, तो पैर में जख्म होने के बावजूद ये यहां से निकल गए। पुलिस आई तो हमें धमकाया, मारने की धमकी भी दी। हमने कहा कि मारिए पर हमको पता नहीं है कि वे कहां हैं। छोटे-छोटे बच्चे थे और पुलिस आके किवाड़ पिटने लगती थी। 

पैसा नहीं भी रहता था, तो इनसे नहीं कहती थी। सोचती थी कि वे जेल में हैं, पैसे का कहां से इंतजाम करेंगे। सबसे कहते कि मेरी वाइफ बहुत अच्छी है, एक नजीर है। बच्चे कभी कहते कि तकलीफ है, पैसे का इंतजाम करने को कहिए, तो मैं कहती कि वे तो जेल में हैं, वे सोच-सोच कर परेशान होंगे, कहां से पैसा लाएंगे? उनको परेशानी क्यों दें? कोटा (जन वितरण प्रणाली) का चावल गिराकर बच्चों को पाला। एक कपड़े पर गुजारा किया। लेकिन अपने शौहर को कभी उरेब बात नहीं कहा। यही सोचती थी कि नहीं है, तभी तो नहीं दे रहे हैं। हम उनको कभी नहीं बोले।

आखिर में जब हाॅस्पीटल में थे, तब भी बच्चों ने कहा कि ये तो पापा को बोलती ही नहीं। तो मैंने कहा कि पापा मुसीबत में हैं। अल्ला ताला मेरी मुसीबत को हल कर देंगे, पर अल्ला ताला हल नहीं किए। ऐसा नहीं था कि इन्हें बच्चों की चिंता नहीं थी, कहते कि मेरे शाद (बड़ा बेटा) का क्या होगा! ये अपनी बहन को संभालेगा। हम बहुत आदमी छोड़ के जा रहे हैं। मुझसे कहते कि पार्टी को मत छोड़ना। 


एक विधायक या सांसद से ज्यादा रुतबा था चांद साहब का : सोहैल अख्तर

चांद साहब हमेशा गरीब-मजदूर-अकलियत लोगों के कल्याण की बात करते थे। 96 में बिजली के लिए आंदोलन हुआ, उस वक्त वे भूमिगत थे, लेकिन उन्होंने आंदोलन में पूरी मदद की। कब्रिस्तानों को लेकर अक्सर विवाद होता था। 97-98 में उनके नेतृत्व में हमने कब्रिस्तान बचाने और उसकी घेरेबंदी के लिए आंदोलन किया। यह इसीलिए किया गया कि इसे लेकर दंगा-फसाद की स्थिति पैदा न हो। 

सीपीआई का सन् 2000 के चुनाव में गठबंधन था, इस नाते मैं लगातार उनके साथ चुनाव प्रचार में रहता था। अरवल का चुनाव काफी चुनौतीपूर्ण था। लोग जगह-जगह मजारों पर मन्नत मांग कर चुनाव प्रचार शुरू कर रहे थे, उनके विपरीत का. शाह चांद ने यादव जाति के एक शहीद साथी के घर से प्रचार की शुरुआत की। गरीबों के प्रति कितना प्यार था उनमें, यह उस चुनाव कैंपेन में भी दिखा। एक दिन एक दर्जी जो फुटपाथ पर सिलाई करते थे, उन्होंने उनको अपने घर दावत दी, जिसे चांद साहब ने तुरत कबूल कर लिया। रात में हम वहां पहुंचे, जो खाना उन्होंने खिलाया, खाए। झोपड़ा टाइप का घर था। हमें जिस कमरे में सुलाया गया, उसमें दरवाजा नहीं था। मेजबान के पास एक ही रजाई थी, जिसे बच्चों ने ओढ़ रखा था, उन्होंने वही रजाई लाकर दिया जिसे लेने से का. शाह चांद ने मना कर दिया। हमने एक ही चादर में रात काटी। मैंने चांद साहब से कहा कि अरवल लौट चलते हैं। उन्होंने कहा कि हमने दावत कबूल किया है, नहीं रुकेंगे तो गरीब का दिल टूट जाएगा।

चुनाव हारने के बाद भी शाह चांद एक विधायक और सांसद से ज्यादा रूतबा रखते थे। चुनाव जीतने वाले तो पटना गए, पर वे शहर से देहात तक लोगों का शुक्रिया अदा कर रहे थे। सुबह से ही लोगों के बीच घूमना शुरू कर दिया था। लोगों से बोले कि चुनाव में हारना-जीतना तो लगा ही रहता है, किसी का दोष नहीं है, आपलोग साथ हैं तो मैं तो जीता ही हुआ हूं। उसके अगले ही साल 2001 में वे मुखिया के रूप में चुने गए, उनकी ईमानदारी और कर्मठता की वजह से उनके विरोधियों ने खुलकर समर्थन किया। उस वक्त रणवीर सेना के खिलाफ तीखा आंदोलन चल रहा था और वे उसका नेतृत्व भी कर रहे थे। वे जनता की एकजुटता के जितने हिमायती थे, उतनी ही मुस्तैदी से वामपंथी ताकतों की एकता के लिए प्रयासरत रहते थे। व्यक्तिगत तौर पर मैं उनसे इतना मुतास्सिर हुआ कि सीपीआई से भाकपा-माले में आ गया।

वे बहुत ही खुशमिजाज आदमी थे। बिल्कुल खुले दिल से किसी से मिलते थे। कभी भी उन्होंने ऐसा नहीं समझा कि वे कोई बड़े नेता हैं या किसी बड़े खानदान से हैं। वे बेधड़क किसी घर में चले जाते थे। घर की औरतें और बच्चियां उनसे पर्दा नहीं करती थीं। 

चांद साहब बहुत पक्के इरादे के व्यक्ति थे। जब पटना-औरंगाबाद रोड पर मौजूद मकानों को तोड़ने का आदेश आया तो वे सुबह-सुबह मेरे पास पहुंचे और कहे कि ये गरीब लोग हैं, ये उजड़ जाएंगे, क्यों न इसे रोकने के लिए आंदोलन शुरू किया जाए? मात्र तीन आदमी थे- मैं, चांद साहब और विजय। मैंने कहा कि चांद साहब, तीन आदमी से आंदोलन खड़ा होगा? वे बोले- साहब, इरादा पक्का हो तो एक आदमी भी काम कर सकता है, आंदोलन को तेज कर सकता है, हम तो तीन हैं। हम तीन आदमी ही झंडा लेकर निकल गए। तीनों को पुलिस ने पकड़ा और डंडे से पीटा और कहा कि आंदोलन बंद करो। लेकिन चांद साहब अडिग खड़े रहे। उसी मोड़ पर सभा की और लोगों की भीड़ जुट गई। मकान नहीं टूटे, अब तक कायम हैं। उन्होंने कहा था कि जब तक चांद है अरवल नहीं टूटेगा। मकान-दूकान तोड़ने से पहले प्रशासन को वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी। 

साथियों को खिलाने और चीजों को बांटने की भी उनको आदत थी। 1998 में वे एक दूसरे केस में जहानाबाद जेल में बंद थे। तो उन्होंने मुझसे दो किलो मिठाई और 1 किलो खैनी, छह लाइफब्वाॅय साबुन और कपड़ा धोने का साबुन मंगवाया। तमाम कैदियों के साथ सिपाहियों के बीच उसे उन्होंने बांट दिया। फकीराना अंदाज था उनका। अपने पास रखने की आदत नहीं थी, जो भी होता था, बांट देते थे।

जेल में कोई भी मिलने जाता था तो अपने परिवार से ज्यादा गांव और इलाके के लोगों का ही हालचाल लेते थे।


का. शाह चांद की एकता के पाठ को कैदियों ने याद रखा : त्रिभुवन शर्मा

जेल में प्रशासन और दबंग बंदियों की लूटखसोट चलती थी। कैदियों के लिए जो सामग्री आती थी, उसका तकरीबन आधा हिस्सा अपराधी किस्म के लोग लूट लेते थे। वे लोग व्यक्तिगत तौर पर खाना बनवाते थे। इसके खिलाफ का. शाह चांद गरीब-गुरबे कैदियों को एकजुट करके लड़े। सर्वदलीय कमेटी बनी। सामूहिक भंसा की शुरुआत हुई। सबको बढ़िया खाना मिलने लगा। जो घर से खुशहाल कैदी थे, वे भी सामूहिक भंसा में आकर खाने लगे।

बाहर समाज में जितना विभाजन रहता है, वह जेल में कुछ अधिक ही होता है। इसलिए यहां व्यापक गोलबंदी आसान नहीं होता। लेकिन यह का. शाह चांद ने किया। दो-तीन बार मारपीट भी हुई। एक बार यादव जाति के एक लंपट से मार हुई, तो उसने जातीय गोलबंदी करने की कोशिश की, लेकिन का. शाह चांद ने इसे सफल नहीं होने दिया। तमाम न्यायपसंद लोग उनके साथ एकजुट रहते थे। पार्टी कार्यकर्ता छोटा हो या बड़ा, उसके साथ वे कोई भेदभाव नहीं करते थे। कोई भी कैदी कोई समस्या लेकर उन तक पहुंचता था तो उसका समाधान करने की कोशिश करते थे। अगर उनके पास दो कुरता पैजामा हो, तो एक कुरता पैजामा भी दे देने में उनको कोई हिचक नहीं होती थी। किसी साथी को बेल के लिए पैसे की जरूरत होती और उनके पास पैसे होते तो उनका बेल भी करवा देते थे। उनका सारा साधन पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए तो था ही, मुसीबत में फंसे दूसरी पार्टियों के कार्यकर्ता भी इस उम्मीद में उन तक पहुंचते थे कि वे उनकी मदद करेंगे। एक बार भाजपा के एक अभियान में अरवल में गोली भी चल गई थी और वहां के भाजपाइयों को जेल हो गई थी। वे जब जेल पहुंचे, तो उन लोगों ने कहा कि वे चांद साहब के साथ ही रहेंगे। किसी कैदी के साथ कोई प्रशासनिक समस्या भी होती थी, तो वे उसकी मदद करते थे। जहानाबाद जेल में कैदियों की जो गोलबंदी उन्होंने बनाई, उसी कारण उन्हें यहां से गया जेल भेज दिया गया। लेकिन एकता का जो पाठ उन्होंने पढ़ाया उसे जहानाबाद के कैदियों ने याद रखा और आज भी उनकी एकता कायम है। 

जेल में जनतांत्रिक अधिकारों की जंग

का. शाह चांद जेल में भी कैदियों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे। आंदोलन के दौरान उन्होंने जो 26 सूत्री मांग रखी थी, उसमें कैदियों के लिए स्वास्थ्य, भोजन, शुद्ध पेयजल, शौचालय आदि की सुविधा को दुरुस्त करने की मांग तो की ही, उसमें एक महत्वपूर्ण मांग यह भी थी कि अगर किसी कैदी की जेल या हिरासत में मौत होती है, तो उसके लिए डाॅक्टर और संबंधित अधिकारी को जिम्मेवार ठहराया जाए और उनके परिजनों को दस लाख का मुआवजा दिया जाए। 65 साल की उम्र पार कर चुके तमाम सजायाफ्ता कैदियों को रिहा करने, ट्रायल के नाम पर तीन साल पूरा कर चुके लोगों को अनिवार्य रूप से जमानत पर छोड़ने, सजा की अवधि पूरा होने के बावजूद जेल में रखने वाले कैदियों को प्रति दिन 300 रु. के दर से क्षतिपूर्ति की व्यवस्था करने, सरकार की जनविरोधी नीतियों और काले कानूनों का विरोध करने वाले बंदियों को राजनीतिक बंदी का दर्जा देने, हाथ में हथकड़ी और कमर में रस्सी बांधकर कोर्ट ले जाने की प्रक्रिया को बंद करने, रिमांड के नाम पर कैदियों को शारीरिक-मानसिक यातना देने की प्रवृत्ति को बंद करने, पोटा-टाडा जैसे कानूनों को निरस्त करने की मांग भी उन्होंने की थी। 2013 में उन्होंने बेउर जेल में कैदियों के अधिकार के लिए जो आंदोलन छेड़ा था, वह कई जेलों में फैल गया था। 

का. शाह चांद जेल में रहे या जेल से बाहर, वे जनता के एक सच्चे नेता की भूमिका में रहे। जनता के दुख-दर्द से उनका गहरा सरोकार रहा। वे आखिरी सांस तक उसके लोकतांत्रिक हक-हकूक की हिफाजत में खड़े रहे। अपने समय के तमाम ज्वलंत सवालों से उनका वैचारिक सरोकार रहता था। उनका जेल नोट बुक इसका साक्ष्य है। वह शायरी के प्रति उनकी दिलचस्पी का भी पता देता है। अजीमुल्ला खां और 1857 के अन्य रणनीतिकार, 1857 : तब और अब, भारत में मुसलमानों, खासकर दलित मुसलमानों के हालात, धर्मनिरपेक्षता, बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को आतंकवादी कहकर फर्जी मुकदमों में फंसाने की शासकवर्गीय नीति, हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रति मौलाना आजाद के विचार, मुस्लिम महिलाओं के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार, उ.प्र., महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सांप्रदायिक दंगों की बढ़ती संख्या, परमाणु करार, एफडीआई, उर्दू भाषा की खासियत, ‘आप’ का स्वागत और उससे सवाल, उदारीकरण, कैग की जरूरत, काॅमनवेल्थ में अनियमितता, मनरेगा धांधली, इसरो में अनियमितता आदि कई विषय और मुद्दे हैं, जिनसे संबंधित विभिन्न अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं से लिए गए नोट्स उनके जेल नोट बुक में मिले। 


बेचकर अपनी खुशी औरों के गम खरीदेंगे

शाहिद अख्तर, वरिष्ठ पत्रकार, पीटीआई

शाह चांद साहब से मेरी पहली मुलाकात 1986 में हुई थी। उस वक्त आईपीएफ के झंडे तले भाकपा माले ने पहली बार चुनाव में हिस्सा लिया था और कुछ सीमित सीटों पर चुनाव लड़ा था। उनमें एक सीट अरवल की भी थी। यहीं चुनाव प्रचार के दौरान उनके घर में करीब एक घंटे तक उनसे बातचीत हुई। वह 1978 के चुनाव में मुखिया चुने गए थे, लेकिन किसी परंपरागत मुखिया से बिल्कुल भिन्न वह एक बेहद सुलझे हुए और जनसरोकार वाले इंसान दिखे। वह माले के आंदोलन का नजदीक से अवलोकन कर रहे थे, लेकिन उसमें शामिल नहीं हुए थे।

करीब सात साल बाद उनके साथ काम करने का मौका मिला। तब पार्टी ने इन्कलाबी मुस्लिम कान्प्रफेंस का गठन किया था और मैं और शाह चांद साहब दोनों ही सचिव पद की जिम्मेदारी निभा रहे थे। यहां उन्हें करीब से देखने और जानने-समझने का मौका मिला। वह एक ध्नी परिवार से आते थे लेकिन उनके घर का खर्च किसी तरह चलता था। 

मुझे नहीं पता कि उन्होंने माक्र्सवाद का ककहरा कितना पढ़ा था। जहानाबाद और अरवल क्रांतिकारी जनसंघर्षों का एक मुख्य केन्द्र रहा है और उन्होंने इन्ही संघर्षों में दीक्षा ली थी। वह किताबी कामरेड के बजाय जमीन से जुड़े एक असली नेता थे। जनता से उनका गहरा जुड़ाव था। उनका सब कुछ आम दलित दमित जनता के लिए था। तभी तो तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भी वह अंत तक संघर्ष में डटे रहे।

‘बाजार से जमाने के कुछ भी न हम खरीदेंगे/ हां बेचकर खुशी अपनी औरों के गम खरीदेंगे। चांद साहब इसी शेर की एक मिसाल थे।


का. शाह चांद : इंकलाब के जांबाज सिपाही

वसी अहमद, नेता, भाकपा-माले

मैं शाह चांद से पहली बार मिला, अरुण भारती, डाॅ. जगदीश व कई अन्य मेरे साथ थे। मैं उस समय आईपीएफ जिला अध्यक्ष था। वो मिले- बड़े जोशो-खरोश के साथ, मगर शाहाना अंदाज में। उनके शाहाना ठाटबाट से मुझे बिल्कुल नहीं लगा था कि ये शख्स समाज के ऐसे फटेहाल तबकों के साथ घुलमिल सकता है जिस पर आईपीएफ या सीपीआई-एमएल की बुनियाद खड़ी होती है। लेकिन मुखिया बनने के दौरान ही वे बड़े हैरतअंगेज अंदाज से बिना जाति या धर्म का फर्क किए अवाम से घुल-मिल गए और तेजी से इंकलाबी सियासत की तरफ बढ़ चले। 

मैंने एक बार उनसे चुटकी ली और कहा- ‘भाई चांद, आप तो शाह हैं, आपको गरीबों की जद्दोजहद से क्या हासिल होगा?’ उन्होंने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया- ‘‘वसी साहब, जो सिर्फ अपने लिए जीता है, उसका जीना सचमुच कोई जीना नहीं। जीना तो उसका है, जो दूसरों के लिए जीता हो।’’

आज हम देख रहे हैं कि काॅ. चांद की बातें सिर्फ कहने भर के लिए नहीं थीं। उन्होंने इसे कर दिखाया भी। एक्तदार के भूखे दरिंदों के तमाम जुल्म-ओ-सितम के बाद भी वो अपने इरादे से न डिगे तो हिरासत में उनकी जान ले ली गई। 







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