महाश्वेता देवी ने 1983 में फोर्ड फाउंडेशन का फ़ेलोशिप एवार्ड ठुकरा दिया था। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में थीं। पेश है उनके निधन पर जसम का बयान।
प्रख्यात भारतीय साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता महाश्वेता देवी के निधन पर जन
संस्कृति मंच शोक व्यक्त करता है और उन्हें
हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता है। उनका निधन भारतीय साहित्य के लिए बहुत बड़ी क्षति
है। 28 जुलाई दोपहर
तीन बजे के आसपास 90 वर्ष की
उम्र में कोलकाता में उनका निधन हो गया। पिछले कुछ वर्षों से वे अस्वस्थ चल रही
थीं। महाश्वेता जी का जन्म ढाका के एक सुविधा-संपन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता
मनीष घटक प्रख्यात कवि थे। उनकी मां धारित्री देवी भी साहित्य की गंभीर अध्येता
थीं। मशहूर रंगकर्मी विजन भट्टाचार्य से उनकी पहली शादी हुई थी। बांग्ला के मशहूर
क्रांतिकारी कवि नवारुण भट्टाचार्य उनके बेटे थे।
जसम की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि महाश्वेता जी बांग्ला की लेखिका
थीं, पर हिंदी
के पाठकों और साहित्यकारों के बीच भी वे बेहद लोकप्रिय थीं। उन्होंने आदिवासियों, दलितों, स्त्रियों और हाशिये के अन्य समुदायों
तथा गरीब-मेहनतकश वर्ग के अधिकारों के लिए आजीवन संघर्ष किया। महाश्वेता जी उन
लेखकों में थीं जो शासकीय दमन का विरोध करते हुए जनता के प्रतिरोधों और आंदोलनों
के पक्ष में पूरी हिम्मत के साथ खड़े होते रहे हैं। उन्होंने लेखन के क्षेत्र में
स्त्री की ताकतवर दावेदारी स्थापित की और जनपक्षधर साहित्य लेखन के क्षेत्र में एक
जबर्दस्त मिसाल कायम की। 'जंगल के दावेदार’, ‘अग्निगर्भ’, 'चोट्टि मुंडा और उनका तीर’, ‘टेरोडेक्टिल’, ‘शालगिरह
की पुकार’, ‘हजार
चैरासी की मां’, ‘मास्टर
साब’ आदि उनके ज़्यादातर बहचर्चित उपन्यासों में आदिवासियों और भूमिहीन किसानों की
जिंदगी, उनका
जुझारू संघर्ष और बेमिसाल प्रतिरोध ही केंद्र में रहे। उन्होंने 1857 के महासंग्राम से संबन्धित ‘झांसी की रानी’, ‘नटी’ और ‘अग्निशिखा’ नामक तीन उपन्यास भी लिखे। उनके कई कहानी संग्रह भी
प्रकाशित हैं। ‘द्रौपदी’, ‘बांयेन’, ‘बीज’ ‘शिकार’, ‘रूदाली’ ‘अक्लांत कौरव’, ‘घहराती घटाएं’ आदि उनकी चर्चित कहानियां हैं।
जसम की ओर से जारी बयान में महाश्वेता जी को बिहार के धधकते खेल-खलिहानों
की आग को दर्ज करने वाली साहित्यकार के तौर पर भी याद किया गया। जसम के अनुसार उन्होंने भोजपुर के सामंतवाद-विरोधी किसान
आंदोलन की आवाज को दुनिया तक पहुंचाया। बांग्ला पत्रिका ‘देश’ में उन्होंने मास्टर जगदीश और का.
रामनरेश राम, रामेश्वर
अहीर, बूटन राम
आदि उनके साथियों के संघर्ष की दास्तान को लिखा था, जो बाद में ‘मास्टर साब’ नाम से हिंदी में अनूदित हुआ। जसम की
गीत-नाट्य इकाई ‘युवानीति’ ने इस उपन्यास पर आधारित नाटक का मंचन
किया था। इस नाटक के मंचन की खबर मिलने पर उन्होंने जनसत्ता के अपने नियमित स्तम्भ 'मैं
जो देखती हूँ' में जगदीश मास्टर और उनके साथियों के संघर्ष
को याद करते हुए आखिर में उन्होंने लिखा था- ''मेरा मानना है
कि अपनी कमियों के बावजूद सिर्फ नक्सली ही हमें देश को तबाह कर रही समस्याओं की
जड़ें देखने को बाध्य कर सकते हैं।'' ‘युवानीति’ और ‘हिरावल’ ने उनके मशहूर उपन्यास ‘हजार चौरासी की मां’ का भी मंचन किया था, जिस पर बाद में हिंदी फिल्म बनी। इन
दोनों नाटकों में दर्शकों की खचाखच उपस्थिति ने भी महाश्वेता देवी के लेखन के
प्रति जनता के जबर्दस्त आकर्षण को जाहिर किया था। ‘हजार चौरासी की मां’ नक्सलबाड़ी विद्रोह से प्रेरित होकर
क्रांति की राह पर चल पड़े नौजवानों के भीषण शासकीय दमन के खिलाफ एक मां के
जबर्दस्त प्रतिकार की कहानी थी। उन संवेदनशील नौजवान क्रांतिकारियों की हत्याओं के
लिए जिम्मेवार सत्ताधारियों को महाश्वेता जी ने कभी माफ नहीं किया। महाश्वेता जी
क्रांतिकारी वामपंथी धारा के एक विशिष्ट रचनाकार के तौर पर हमेशा याद की जाएंगी। यह संयोग है कि जिस
रोज क्रांतिकारी वामपंथी कतारें महान कम्युनिस्ट नेता और भाकपा-माले के संस्थापक
महासचिव कामरेड चारु मजुमदार के शहादत की चौवालीसवीं वर्षगांठ मना रहीं थी, उसी
रोज महाश्वेता जी ने अपनी आखिरी सांसें लीं। वामपंथी सरकार के जरिए नंदीग्राम और
सिंगुर में राज्य दमन किए जाने के खिलाफ उन्होंने उत्पीड़ित किसानों का पक्ष लिया
था, जो
प्रगतिशील-जनपक्षधर लेखकों की सामाजिक-राजनीतिक भूमिका के लिहाज से हमेशा
पथ-प्रदर्शक रहेगा। सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलन के वक्त उन्होंने
रामजी राय और अनिल अंशुमन द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार में कहा था कि ''हमें
उनसे (किसानों से) सीखने की जरूरत है। उनसे सीखने का भाव
लेकर उनके पास जाओ उनको सिखाने का नहीं। इस देश का आम आदमी ज्यादा जानता है।'' बुद्धिजीवियों और नौजवानों की भूमिका के बारे में उन्होंने उसी
साक्षात्कार में कहा था- ''हमें घर में बैठने का कोई अधिकार
नहीं है। जो जहां है वहाँ से निकलो। घर में बैठकर बड़ी-बड़ी बात करने का समय नहीं, बाहर निकलने का समय है। मैंने जीवन में कभी छुट्टी नहीं ली। हमेशा जाती
हूँ लोगों के बीच। मैं तो हमेशा सबसे कहती हूँ, नौजवानों से
भी कहती हूँ- जाओ गांवों में, किसानों में, उनसे जाकर मिलो।''
1980 से वे ‘वर्तिका’ पत्रिका का संपादन भी कर रही थीं। इस
पत्रिका का संपादन पहले उनके पिता करते थे। महाश्वेता जी ने अपने संपादन में
बांग्ला देश और अमरीका के आदिवासियों पर विशेषांक निकाले। इंट भट्टा मजदूर, बंधुआ मजदूर, फैक्टरी मजदूर, अपनी जमीन से विस्थापित आदिवासियों पर
भी उन्होंने इस पत्रिका के यादगार विशेषांक निकाले। महाश्वेता जी ने सिर्फ लिखा ही
नहीं, बल्कि जिन
पर लिखा उनके बीच जाकर काम भी किया। पलामू के बंधुआ मजदूरों, मेदिनीपुर के लोधा और पुरूलिया के
खेड़िया शबर आदिवासियों के बीच उन्होंने सामाजिक कार्य भी किए। अपने उपन्यासों और
कहानियों को लिखने के लिए वे काफी रिसर्च वर्क करती थीं। ‘मास्टर साब’ उपन्यास भी इसका साक्ष्य है। महाश्वेता
जी तमाम परिवर्तकामी शक्तियों और जनपक्षधर लेखक-संस्कृतिकर्मियों के लिए हमेशा
प्रेरणा का स्रोत रहेंगी। जन संस्कृति मंच उन्हें क्रांतिकारी लाल सलाम करता है!
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