Saturday, June 25, 2016

महेश्वर की कविताएं



महेश्वर जी हिंदी की क्रांतिकारी जनवादी धारा के महत्वपूर्ण एक्टिविस्ट पत्रकार, संपादक, लेखक, कवि और विचारक थे। वे समकालीन जनमत के प्रधान संपादक थे। उनके संपादन में इस पत्रिका ने वैकल्पिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक मिसाल कायम की और आंदोलनों को आवेग देने वाली पत्रिका के रूप में जानी गई। महेश्वर जी जन संस्कृति मंच के महासचिव भी रहे। अपनी जानलेवा बीमारी से उनका जुझारू संघर्ष चला। लगभग एक दशक के उसी अंतराल में उन्होंने साहित्य-संस्कृति और पत्रकारिता के मोर्चे पर बेमिसाल काम किया।  25 जून 1994 को उनका निधन हो गया, पर आज भी उनका जीवन और उनका काम हमारे लिए उत्प्रेरक हैं, प्रासंगिक है।   स्मृति दिवस पर पेश है उनकी कुछ कविताएं-


तुम्हारे पदचिह्न

बशर्ते

एक अदद आकाश हो सर के ऊपर

और पैरों के नीचे हो

वही तुम्हारी जानी-पहचानी

जमी-जमायी घर-गिरस्ती-सी जमीन-




कदमों से लिपटी हो

हुई-अनहुई असमाप्त यात्राओं की दस्तक

और मन की स्लेट पर मुकर्रर हो

अपने ही पक्ष में वक्त की सबसे जोरदार दलील-




बशर्ते

तुम्हें मालूम हो कि क्या हो तुम

और किधर ले जाना चाहती हैं तुम्हें तुम्हारी इच्छाएं

और भोर के झुटपुटे में पहले पखेरू के जगने से पहले

कहीं कोई और नहीं

बल्कि महज तुम कह सको कि हां,

सभी संदेहों और सवालों और विवादों से परे है 

तुम्हारा होना- 




यानी, 

अगर यथार्थ के छंद में

उठती और गिरती हो कल्पना की पलक

और तुम्हारे बाहर से एकदम 

अलग-थलग ही न हो तुम्हारे अंदर का रचना-संसार-




तो-

ईमानवाले ईमान लाएं और 

यकीन वाले दांव पे लगाएं अपना यकीन-

मुश्किल नहीं है

बादलों में घिरते समुद्र की संभावना

भाटे के ज्वार के छितराये हुए बीज

उल्टी हुई डोंगी के जलखाये पेटे में 

चमचमाती मछलियों की रूपहली हलचल

रेत के बगूलों और घोड़ों की टापों के बीच

मूर्तिमान वेग जैसे भागते हुए पल

जाड़ों की बारिश से ठिठुरे हुए मौसम में

एकटक जलते अलावों के निशान

दौलत के ठीहे पर कीमा संवेगों का दारुण प्रतिकार 

और फैसले की वो घड़ी

जिसके हर कील-कांटे पर हाकिम हो इंसान का अंगूठा....




कुछ भी मुश्किल नहीं है तुम्हारे वास्ते-

यहां तक कि समय से पहले ही

पहचान लिए जाते हैं व्यवस्था के बहुरूपिए

बहुत तेज-तेज बजती है उनके खोखलेपन की मुखरता

परम प्रतापी विकराल मुखौटों में

चैराहों पर लड़खड़ाते हैं सजावटी कठघोड़वे

अपने भीतर के भय से निकालते हैं बाहर

धूपछांही शब्दों के लुंज-पुंज तार-

-ध्वंस-पराजय-अंत-समापन-कलह और शोक-

-मौत से मौत तक जारी रहता है 

उनका मारण-मोहन-उच्चाटन




बेशक, 

धरती के उन अक्षांश-देशांतरों की पहुंच से पहले

जहां समय के दोधारे पर

उनके लिए आॅक्टोपस की आंख की तरह

रोजाना उगते और जलते हैं तुम्हारे पदचिह्न!!


वे

वे जब विकास की बात करते हैं

तबाही के दरवाजे पर 

बजने लगती है शहनाई




वे

कहते हैं- एकजुटता

और गांव के सीवान से 

मुल्क की सरहदों तक

उग आते हैं कांटेदार बाड़े



वे

छुपाने के उस्ताद हैं

मगर खोलने की बात करते हैं



वे

मिटा देते हैं फर्क

गुमनाम हत्याओं और राजनीतिक प्रक्रियाओं के बीच




उनके लिए 

धर्म एक धंध है और सहिष्णुता- हथकंडा



वे 

राशन-दुकान की लंबी लाइन में चिपके

आदमी के हाथ 

बेच देते हैं

आदमी के सबसे हसीन सपने

और कहते हैं 

कि दुनिया बदल रही है- धीरे-धीरे




वे 

बदलाव के गीत गाते हैं

और 

अच्छे भरे-पूरे दिन

रातों-रात बन जाते हैं

टूटी दीवारों पर फड़फड़ाते इश्तिहार




वे

चाहें तो 

सूरज को पिघला कर 

बना दें- निरा पानी




वे चाहें तो चांद के धब्बे

हो जाएं- और गहरे




वे चाहें तो तारों को बना दें डाॅलर

और खरीद लें दुबारा

अपनी बेची हुई अस्मिता




अपनी चाहत में वे हैं-

सर्वशक्तिमान-

मगर उनका जोर चलता है

कमजोरों पर-

यानी, उन पर

जो ऐन वक्त पर 

आदमी होने के बजाय

साबित होते हैं-

भेड़िए के मुंह में मेमना! 




रोशनी के बच्चे

मत करो उन पर दया

मत कहो उन्हें- ‘बेचारी गरीब जनता’

या, इसी तरह का कुछ और




मत करो उनकी यंत्रणाओं का बयान

छेड़ो मत उनकी सदियों पुरानी

भूख और बीमारी की लंबी दास्तान

मत कहो तबाही-बदहाली-लाचारी और मौत

जो कि निरे शब्द हैं

उनकी जागृत जिजीविषा के सामने

टिसुए मत बहाओ

अगर उन्हें समझा जाता है समाज का तलछट

और फेंकी जाती है मदद मुआवजे के बतौर




वे झेल आए हैं इतिहास की गुमनामी

वे वर्तमान में खड़े हैं

भविष्य में जाएंगे

उन्हें नहीं चाहिए हमदर्दी की हरी झंडी




उनकी नसों में उर्वर धरती का आवेग है

उनके माथे पर चमकता है जांगर का जल

उनके हाथ की रेखाओं से

रची जाती है सभ्यता की तस्वीर

उनकी बिवाइयों से फूटते हैं संस्कृति के अंकुर

उनके पास उनकी ‘होरी’ है

‘चैता’, ‘कजरी’ और ‘बिरहा’ है

हजारों हत्याकांडों के बावजूद 

सही-सलामत है उनका वजूद-

उनकी शादी-गमी

उनके पर्व-त्योहार

उनका हंसना-रोना

जीना-मरना

सोना-जगना

उठना-बैठना

पाखंड और बनावट से परे उनका होना



वे स्वर्ग से निर्वासित आदम हैं

उनके निर्वासन से डरता है स्वर्ग 

वे रोशनी के बच्चे हैं

सुबह से शाम तक 

पूरब से पश्चिम तक

वे ढोते हैं सूरज अपनी पीठ पर




मत करो मैली उनकी राह

अपने मन के घनेरे अंधकार से

मत थोपो उनके संसार पर अपना संसार




औरत के बारे में एक कविता

वह आएगी-

बांस के झुरमुटों 

और 

फूलों की घाटी को

अपने लहूलुहान पैरों से

हमवार करती हुई




वह

जले हए जंगलों से

निचोड़ लाएगी हरीतिमा

और 

उससे खींच डालेगी 

सेवा और प्यार के बीच एक लकीर- 

जैसे पुराने किलों के चारों ओर

खोदी गई थीं खाइयां 

जैसे आदमी की नसों को दुह कर 

निकाली गई थीं नहरें

जिन्हें लील गया समय पर

पूरा-का-पूरा एक रेगिस्तान




तुम इसी रेगिस्तान में जलोगे!




तुम्हारी आवाज में जो 

पुरुष खनक थी 

जो रुआब और रुतबा था

मालिकाना था

हुक्म और डपट थी

और थी

अपमान और यंत्रणा-




सब-के-सब गर्क हो जाएंगे

मृत्यु की प्रकाशहीन घाटी में- 

उस बेहोशी की तरह

जो 

किसी भी क्षण

आत्महीन लोगों को

धर दबाती है

जैसे उचट जाती है

बिना सपनों की वीरान नींद

और 

जैसे उड़ जाती है भूगोल से 

कोई भी बस्ती

सुंदरीकरण के प्रचंड पदाघात से



तब,

जीवन के लहलहाने की बारी आएगी-

फूलने, फलने और पकने के दिन आएंगे

तब,

वह आएगी-

एक विजेता की तरह

मेंहदी रची हथेलियों में बहार का संदेसा लिए

फूलों की घाटी में सूरज उगाती हुई। 


हमारी जमीन

हम जिस जमीन पर खड़े हैं आज

अगर हमारे पूर्वजों के लहू ने

उगायी नहीं इस पर सभ्यता की फसल 

तो कहां से भर आया इसमें

उर्वरता का अजस्र स्रोत?



हम जिस जमीन पर खड़े हैं आज

अगर नहीं है इस पर हमारा कोई अधिकार

तो क्यों बहाया जाता है हमारे बेटों का लहू

हवामहल के बाशिंदों को

जमीन पर काबिज करने के वास्ते?

हम जिस जमीन पर खड़े हैं आज

अगर नहीं है इसकी छाती में प्रतिशोध का दर्प

तो क्यों जब हमारे सिर के बाल हिलते हैं

खड़े हो जाते हैं कब्रिस्तान की तरह

मालिक की देह के रोंगटे? 

सवालों से घिरे अपने देश में

हम जिस जमीन पर खड़े हैं आज

उसी पर कल से शुरू होगी

जवाबों की नई शताब्दी 

हमारे सिवा और कौन है

जो रख सके

इस नई सदी की पुख्ता बुनियाद!




जिंदगी 

जिंदगी तो है

काल के पहिये पर

भागता हुआ एक रथ

और मैं हूं

अपनी चूक से 

संतुलन खोकर गिरा हुआ महारथी

अब मैं क्या करूं-

अपनी गलती के

भद्दे अंजाम पर

सर धुनकर 

व्यक्त करूं खेद

या

नए संतुलन के साथ 

फिर से पकड़ लूँ

भागते रथ की

मजबूत बागडोर?




जिंदगी तो है

विषमता के विरुद्ध 

एक अविराम युद्ध

और मैं हूँ

अतिशय उत्तेजना में

टूटी ढाल के साथ

कठोरतम वारों के 

मुकाबले उतरा 

एक दुस्साहसी योद्धा

अब मैं क्या करूं-

अपने दुस्साहस के

घायल परिणामों पर

हाथ मल-मल कर पछताऊं

या घावों पर मरहम रख

नई ढाल के साथ

फिर से उतर पड़ूं मैदान में? 




जिंदगी तो है

इतिहास की लंबी कूच में

शामिल सैलानी

और मैं हूं

अपनी ही तंद्रा में

लीक से भटका मुसाफिर

अब मैं क्या करूं-

अपने भटकाव से

पैदा अलगाव पर

हाहाकार मचाऊं 

या 

तंद्रा तोड़ूं

दम भर रुककर दौड़ लगाऊं 

और पा जाऊं फिर से

लंबी कूच की कतार?

मगर-

जिंदगी नहीं रुकती

देने को किसी की

तुच्छ उधेड़बुन का जवाब 

किसी की हताश चीत्कारों पर

मुड़कर नहीं देखती है जिंदगी

मंजिल-दर-मंजिल

जीत के मिशन के साथ

आगे ही आगे

बढ़ती जाती है जिंदगी



हां-

मेरे बीमार बिस्तर 

और मेरी उदास आंखों में

उतरे नीले शून्य 

के 

बीच

हर वह चीज जो चमकती है

हर वह चीज जो धड़कती है

हर वह चीज जो छलांगें भरती गुजर जाती है

बार-बार

पुकार कर

दिशाओं से कहती है: 

आदमी को 

हर हाल में

निर्णायक होना चाहिए! 

4 comments:

  1. अच्छी कवितायेँ । महेश्वर जी को पढ़ना सुखद रहा ।

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  2. अच्छी कवितायेँ । महेश्वर जी को पढ़ना सुखद रहा ।

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  3. व्वाहहहह
    बेहतरीन...
    सादर..

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  4. अच्छी कवितायेँ । महेश्वर जी को पढ़ना सुखद रहा

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