Thursday, December 10, 2015

विद्रोही : गुलामी के प्रतिरोध में खड़ा एक जनकवि

‘जब भी किसी 
गरीब आदमी का अपमान करती है
ये तुम्हारी दुनिया, 
तो मेरा जी करता है
कि मैं इस दुनिया को 
उठाकर पटक दूं।’
- ये हैं कवि विद्रोही, जो बिना लाग-लपेट के गरीबों और मेहनतकशों की तरफदारी में बोलते हैं। विद्रोही का कहना है कि वे पब्लिक के हुक्म से कविताएं रचते हैं। वे कहते हैं- ‘पुश्त दर पुश्त से रही है अदावत की रवायत/ तुम मुझे निरा शायरी का मुंतजिर न समझना ऐ सनम।’ दो दुनियाओं के बीच की जो अदावत है, जो संघर्ष है वह विद्रोही की कविता में बिल्कुल मुखर है। उनकी कविता एकसाथ इतिहास, मिथ और वर्तमान सबसे निरंतर बहस करती है। मोहनजोदड़ो की महान सभ्यता का विध्वंस करने वालों से लेकर आज के बर्बर और रक्तपिपासु अमेरिकन साम्राज्यवाद तक से उनकी अदावत है। अब किसी को लगे तो लगे कि यह कविता नहीं लाठी है, तो है यह लाठी ही, एक सचेत किसान की लाठी, कवि के शब्दों में- जो बड़ों के खिलाफ भंजती है/ छोटों के खिलाफ नहीं/ भगवान के खिलाफ भंजती है/ इंसान के खिलाफ नहीं।’ वास्तव में यह रूढि़यों से मुक्त कविता की खेती करने वाले एक सचेत किसान की कविताएं हैं। 
विद्रोही जनता के प्रतिरोध के कवि हैं। सिर्फ वर्तमान ही नहीं, बल्कि मनुष्य के पूरे इतिहास को जान-समझकर उन्होंने प्रतिरोध के कविकर्म का सचेतन चुनाव किया है, क्योंकि 
हर जगह ऐसी ही जिल्लत
हर जगह ऐसी ही जहालत
हर जगह पर पुलिस
और हर जगह पर है अदालत।
हर जगह नरमेध है, 
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है
सूलियां ही हर जगह है, निजामों की निशानी
हर जगह फांसियों पर लटकाए जाते हैं गुलाम।
हर जगह औरतों को मारा-पीटा जा रहा है
जिंदा जलाया जा रहा है
खोदा-गाड़ा जा रहा है
हर जगह पर खून है और हर जगह आंसू बिछे हैं।’ 
मनुष्य की चेतना को कुंद करने वाले और उसे गुलाम बनाने वाले तमाम विचारों, प्रवृत्तियों, परंपराओं, विश्वासों से वे दुश्मनी ठाने हुए हैं। ईश्वर, खुदा, धर्म सब जनता के शोषण के हथियार हैं, वे यह बार-बार कहते हैं और अपनी कविता में गणेश, चूहा, हनुमान, कच्छप, वराह, नृसिंह आदि तमाम मिथ और अवतारों की अवधारणा से मुठभेड़ करते हैं। वे परंपरागत विश्वासों को उलटते हुए एक नई दुनिया की तामीर के ख्वाब को दो टूक लहजे में अभिव्यक्त करते हैं- भाड़ में जाए ये तेरी दुनिया खुदा/ एक दुनिया नई हमको गढ़ लेने दो/ जहां आदमी-आदमी की तरह/ रह सके, कह सके, सुन सके, सह सके। धार्मिक धंधेबाजों और साम्राज्यवाद के रिश्ते को भी वे बखूबी खोल कर रख देते हैं- ‘खुदा और रामचंद्र ये दोनों जने ही/ अमेरिकी बुकनी की मालिश किए हुए हैं/ खुदा रामचंद्र हैं नंगे पर, पांवों में डाॅलर की पालिश किए हुए हैं।’ साम्राज्यवाद और धार्मिक-राजनीतिक सत्ताओं का यह रिश्ता किस तरह दलितों, स्त्रियों, वंचितों के विरोध में है, इसे विद्रोही की कविता उजागर करती है। स्त्रियों के दुख और उत्पीड़न के प्रति जितनी गहरी संवेदना विद्रोही की कविता में मिलती है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। विद्रोही की कविता में भुखाली हरवाह, कन्हई कहार, नूर मियां और नानी-दादी के अद्भुत आत्मीय और जीवट से भरे चरित्र हैं। ऐसे ही लोगों से जो देश बनता है विद्रोही उसके कवि हैं। वे इस जनता के राष्ट्र के निर्माण की गहरी बेचैनी और फिक्र के कवि हैं। फिलहाल उन्हें अपना अभागा देश कालिंदी की तरह लगता है, और सरकारें कालिया नाग की तरह, जिससे देश को मुक्त कराना उनकी कविता का जरूरी कार्यभार है। 
अभाव, वंचना, गुलामी, शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिरोध की तमाम परंपराएं जैसे घुली-मिली हैं विद्रोही की कविता में। गुलामों की जीत और उनका तख्त पर काबिज होना उन्हें गहरे आह्लाद से भर देता है। बलबन पर लिखी गई अपनी कविता में इसी कारण वे उसे खुदाओं का खुदा कहकर सलाम करते हैं। लाल झंडे के प्रति भी उनकी आस्था इसी कारण है कि वह गुलामी और शोषण के समूल नाश के लिए जारी संघर्षों का झंडा है। देश, जिसे लाल झंडा अपनी सलामी देता है, उस देश से उनका आग्रह है- बहुत बेइज्जत हुई आबादियां/ बहुत देखी रानियां-शहजादियां/ बराबरी का ताज है यह ध्वज/ इसे रख सिर के ऊपर/ ऐ वतन...’’ 
3 दिसंबर 1957 को अइरी फिरोजपुर (सुल्तानपुर, उ.प्र.) में जन्मे रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ 1980 में जेएनयू एम.ए. करने आए थे। यहीं वामपंथी आंदोलन के संपर्क में आए। 1983 में छात्र आंदोलन में उन्होंने बढ़चढ़कर शिरकत की और जेएनयू से निकाल दिए गए। लेकिन छात्रों के बीच उनकी लोकप्रियता के कारण कई बार चाहकर भी जेएनयू प्रशासन उन्हें वहां से बाहर नहीं कर पाया। जनता का कवि होने का अभिमान है विद्रोही को। साहित्य के नामवरों की अनदेखी तथा पूंजी और बाजार द्वारा तय श्रेष्ठता के पैमानों की उन्हें कोई परवाह नहीं है। वे तो बड़े गर्व से कहते हैं- मेरे हौसले पर नजाकत झुकी है/ विरासत है सबको दिए जा रहा हूं। और इस विरासत की कितनी पूछ है यह जसम के सांस्कृतिक संकुल (सांस) की ओर से प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह ‘नई खेती’ की मांग बताती है। दिल्ली से लेकर बिहार तक उनके चाहने वालों की लंबी कतार है। 
वैसे विद्रोही की कविता की असली ताकत उसे सुनते हुए ही महसूस किया जा सकता है। वे कविता लिखते नहीं, कविता कहते हैं। एक खास त्वरा युक्त किसी बयान के सिलसिले से जैसे हम गुजरते हैं, जिसमें कई शैलियों और शिल्प का इस्तेमाल मिलता है। विद्रोही को सुनना जनता के किसी कवि को सुनना मात्र नहीं है, बल्कि खुद को सुनना है, खुद को बचाना है, अपने भीतर की जिद को मजबूत करना है, अपने भीतर उस इंसान को जीवित रखना है, जो आजाद है, जो समझौते नहीं करता, जो कभी नहीं हारता, जो कभी नहीं मरता। विद्रोही को सुनना अपने रगों में किसी आदिम और नैसर्गिक ज्वार के उमड़ने के अहसास को हासिल करने जैसा है। विद्रोही कहते भी हैं- न ये वाशिंगटन है, न ये इटली है/ ये हिंदुस्तान है, दिल्ली है/ जहां का विद्रोही वासी है/ आदिवासी है, विद्रोही..’। विद्रोही की कविताएं हमारे सहज न्यायबोध, सामाजिकता, मनुष्यता, आजादी, बराबरी, इश्क, कुर्बानी जैसे भावों के ऊपर पड़ने वाले धूल को जैसे धोकर हमें हमको ही सौंपती हैं।
(यह लेख मैंने जुलाई 2011 में लिखा था। जिसे साथी कुमार मुकुल ने अपने ब्लॉग पर लगाया था। डब्ल्यूटीओ के  हाथों भारत की शिक्षा को नीलाम करने और यूजीसी द्वारा नॉन-नेट फ़ेलोशिप बंद किए जाने के खिलाफ जो आंदोलन चल रहा है उसी के दौरान  8 दिसंबर को  आंदोलन के मोर्चे पर ही विद्रोही जी ने आखिरी सांस ली। कामरेड विद्रोही को लाल सलाम! आप हमेशा हमारी यादों और संघर्षों में रहेंगे। )

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