मधुकर सिंह
15 जुलाई 2015 को कथाकार मधुकर सिंह की पहली बरसी थी। अपने आखिरी दिनों में उन्होंने अपनी डायरी में राजनीति, खेल, फिल्म आदि पर कुछ टिप्पणियां और साहित्य-संस्कृति से जुड़ी यादों के साथ-साथ कुछ छोटी कहानियां भी लिखी हैं। पेश है उन टिप्पणियों और यादों के कुछ अंश और उनकी एक छोटी कहानी- 'लाश', जो समकालीन जनमत के जुलाई अंक में प्रकाशित हैं। टिप्पणियों के नीचे उन्होंने आमतौर पर तारीख नहीं लिखी है, लेकिन इनको पढ़ते हुए पता चल जाता है कि ये प्रायः 2013-14 के बीच लिखी गई हैं। कहानी भी इसी दौर की है। इस कहानी को पढते हुए कमलेश्वर की 'लाश' कहानी की याद आ सकती है। लाश दोनों कहानी में है। लेकिन फर्क यह है कि कमलेश्वर की कहानी में जहां मुख्यमंत्री एक पात्र है वहीँ मधुकर जी की कहानी में प्रधानमंत्री पात्र है।
कमलेश्वर की कहानी में मुख्यमंत्री के विरोध में प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति की एक पहचान है। पर मधुकर जी की कहानी में जनता खुद जगह जगह महंगाई, बेकारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर उतर आयी है। वह संसद में इन सवालों पर बहस चाहती है। प्रधानमंत्री कहता है- 'जनता बेमतलब पागल हो गयी है। विपक्ष ने उसे बहका दिया है।' इसी बीच प्रधानमंत्री की हत्या की खबर आती है। प्रधानमंत्री आपातकाल लागू करने के लिए विधेयक लाना चाहता है। वह अपनी हत्या की खबर सुनकर लाश को देखने जाता है। वह कहता है कि लाश उसकी नहीं, विपक्षी नेता की है। जबकि विपक्षी नेता का कहना है कि वह लाश प्रधानमंत्री की ही है। कमलेश्वर की कहानी में प्रदर्शन पर हमला होता है. हादसे में एक लाश गिरती है. जिसे पुलिस का मानना है कि लाश प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले कांतिलाल की है, जबकि कांतिलाल कहता है कि लाश मुख्यमंत्री की है।आखिर में मुख्यमंत्री आता है और लाश को गौर से देखते हुए कहता है - 'यह मेरी नहीं है। लेकिन मधुकर जी की कहानी में संसद में भी पक्ष-विपक्ष उस लाश को एक दूसरे की लाश बताने लगते हैं।अंततः आपातकाल लागू हो जाता है। लाश से बदबू आने लगती है। महामारी का अंदेशा है। कहानी के अंत में जनता चीख पड़ती है कि लाश उन दोनों की है, यानी प्रधानमंत्री और विपक्ष दोनों की। शायद यह लाश मोदी के दौर के शासकवर्गीय राजनीतिक पक्ष-विपक्ष और उसके प्रति जनता के भीतर बढती नफरत को स्पष्ट करने में ज्यादा सक्षम है।
प्रेमचंद ने मुझे सीधे रास्ते पर ला दिया
लिखते-लिखते मुझे नींद आ गई थी। रात के दो बज रहे थे। किसी ने मेरे गाल पर तमाचा जड़ा। मैं अचकचाया। आंखें मलता हुआ उठकर बैठ गया। आंखें खोली तो सामने कथा-सम्राट प्रेमचंद खड़े थे। उन्होंने पूछा- ‘‘क्या लिख रहे हो, मेरे कथाकार?’’
मैंने कहा, ‘‘गोदान की तरह का उपन्यास लिख रहा हूं।’’
उन्होंने मुझे डांटा, ‘‘चुप? तुम्हारे होरी, झुनिया, गोबर, मेहता इनके आगे के होंगे। नागार्जुन का ‘बलचनवा’ होरी के आगे का नायक है जो किसान-मजदूर के हक की लड़ाई लड़ता है। तुम्हारा नायक कौन है? तुम तो किसान-मजदूर के कहानीकार हो। मार्कंडेय से आगे हो। तुम ‘बीच के लोग’ नहीं लिखते। तुम्हारे पात्र सीधे लड़ाई में है।’’
प्रेमचंद जी ने मुझे मेरे सीधे रास्ते पर ला दिया।...
उर्दू में प्रगतिशीलों की जमात कृश्नचंदर, उनकी पत्नी सलमा सिद्दीकी, ख्वाजा अहमद अब्बास, राजेंद्र सिंह बेदी आदि ने अच्छी कहानियां लिखीं। प्रेमचंद इनके आदर्श थे। बाकी उर्दू के युवा कहानीकार जदीदियत (आधुनिकता) के चक्कर में प्रेमचंद को इग्नोर कर रहे थे। हिंदी के गुमराह कहानीकार भी प्रेमचंद से कटकर अपनी राह चल रहे थे।...
लेखक अपने पात्रों के साथ जीता है
एक लेखक का अस्तित्व उसके लिखने के लिए है। वह लिखता है इसलिए जिंदा है। मैं जीने के लिए लिखता हूं। एक लेखक की राजनीतिक चेतना एक राजनेता से अधिक तीव्र होती है। जिसके लिए लिखता है उससे जुड़ा रहता है, जबकि राजनेता को अपने वोटर की पहचान नहीं होती है। वह सत्ता के लिए क्षेत्र बदल लेता है। लेखक अपने पात्रों के साथ जीता है। राजनेता अपने लोगों को छोड़ देता है।
युवानीति की पहली प्रस्तुति और अन्य आयोजनों की याद
श्रीकांत, अजय अपने पिता जी के साथ आए थे। श्रीकांत ने कहा कि मधुकर सिंह को पढ़ते हुए हम सयाने हुए हैं। इनकी कहानी ‘दुश्मन’ का मैंने, सिरिल मैथ्यू, नवेंदु, रामेश्वर उपाध्याय ने नाट्य-रूपांतर कर जवाहरटोला के मुसहरटोली में मंचन किया। मुसहरटोली खचाखच भरा था। समता का सामाजिक माहौल बन गया था।
चित्रकार राकेश दिवाकर द्वारा बनाया गया एक स्केच |
बीस साल पहले मैंने राजगीर में समांतर सम्मेलन कराया था। कमलेश्वर, आबिद सुरती, बाबू राव बागुल समेत कई भाषाओं के लेखक आए थे।...
सन् 2007 में कथा सृजनोत्सव के आयोजन का कुछ छुटभइये विरोध कर रहे थे। कमलेश्वर की हर्टसर्जरी हुई थी। उन्होंने कहीं जाने से मना कर दिया था। मैं नर्वस था। सौभाग्य से कमलेश्वर ने अपना लिखित वक्तव्य भेज दिया था। रामजी राय, सुधीर सुमन, सलिल सुधाकर ने आयोजन को संभाल लिया था। जलनेवाले जलते रहे।
क्रिकेट समझने लगा हूं
पाकिस्तान के रमीज रजा, भारत के सौरभ गांगुली, रवि शास्त्री ऐसी कमेंटरी करते हैं कि इनकी बात दर्शक को समझ में आती है, परंतु राजनेता की बात समझ में नहीं आती है। ये बड़े-बड़े वायदे करते हैं कि इनकी सरकार बनी तो हर परिवार को रोजगार देंगे, पर ऐसा होता नहीं। खिलाडि़यों में आपस में जलन नहीं होती। स्पर्द्धा होती है। राजनेता खेल भावना नहीं रखते।...
बचपन में मैं क्रिकेट का नाम नहीं जानता था। गांव में और स्कूल में फुटबाल जानता था। अखबार में पढ़कर और टीवी में देखकर क्रिकेट में मेरी रुचि जगी। मैं बचपन में कबड्डी-चीका खेलता था। इधर क्रिकेट समझने लगा हूं।
फिल्म देखने की आदत
फिल्म देखने की आदत स्कूल के दिनों से थी। अस्पताल के एक ड्रेसर मेरे मित्र थे। हमदोनों टिकट कटाकर हाॅल में घुस जाते थे। उन दिनों राज कपूर, दिलीप कुमार, सायरा बानो- हमारे चहेते कलाकार थे। राजकपूर की फिल्में- ‘आवारा’, ‘अनाड़ी’, ‘श्री चार सौ बीस’, ‘मेरा नाम जोकर’, आज भी बार-बार देखता हूं। शांताराम की ‘डाॅ. कोटनिस की अमर कहानी’ और ‘झनक झनक पायल बाजे’ को आज भी भूल नहीं पाता हूं। पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, बनमाला, मेहताब अपने समय के महत्वपूर्ण कलाकार थे। इनकी फिल्में यादगार हैं। इन्हीं फिल्मों ने फिल्मों के प्रति मेरी रुचि जगाई।
चुनाव और राजनीतिक अवसरवाद
चुनाव में नेताओं के अपने पराये हो गए हैं। कोई भी किसी नेता का दामन थामने को तैयार बैठा है। चुनाव में सारे रिश्ते राजनेता भूल जाते हैं। जगजीवन राम की पौत्री माधव कीर्ति मीरा कुमार के खिलाफ चुनाव लड़ रही है। आडवाणी गुजरात गांधी नगर से चुनाव लड़ रहे हैं। रामकृपाल बीजेपी से चुनाव लड़ रहे हैं। किसी को किसी पार्टी से परहेज नहीं है। पार्टी का महत्व नहीं रह गया है। जिस पार्टी का लंबा हाथ हो, उसे थाम लो, विजय तुम्हारी है! पार्टी की पहचान खो गई है। पार्टी चाहे जो हो, हमें तो जीत चाहिए। जिसकी सरकार होगी, उसमें हम होंगे। हमारी सरकार होगी। सत्ता में हम रहेंगे। सत्ता की जय हो।
चिराग पासवान का फ्लैट पचास लाख का है। सासाराम से एक ही पार्टी के तीन उम्मीदवार मैदान में हैं, जो जिसे पटक दे। दुर्भाग्य जगजीवन राम की पौत्री माधव कीर्ति, जो उनके बेटे सुरेश राम की बेटी हैं, का नामांकन रद्द हो गया।
लालू जी को खुशफहमी है कि तीसरी बार भी कांग्रेस की सरकार बनेगी। बिहार में जाति आधारित टिकट का बंटवारा हुआ है। जद-यू ने छह, भाजपा ने चार तथा राजद ने तीन अति पिछड़े को टिकट दिया है। एन.के.सिंह और शिवानंद तिवारी ने अभी तक किसी पार्टी का दामन नहीं पकड़ा है। लेकिन सभी पार्टियों में खेल चल रहा है। प्रख्यात पत्रकार एम.जे. अकबर भाजपा में शामिल हो गए हैं। इस तरह आवाजाही चल रही है।
माले का जबरजोत नारा है- बदलो नीति, बदलो राज, संसद में जनता की आवाज। भाजपा का एक ही नारा है- अबकी बार मोदी सरकार। जद-यू नारा गीत की तरह गुनगुना रहा है- ‘नीतीश का विकास बिहार का विकास है।’
दूसरी पार्टी का नेता दल बदलते ही चरित्रवान हो गया है, उसे मनचाहा जगह से टिकट मिल गया है। कुछ इस तरीके के विरोधी हैं। भाजपा के जसवंत सिंह कहते हैं- मैं कुर्सी-टेबुल नहीं हूं जो एडजस्ट हो जाऊंगा। जसवंत सिंह ने निर्दलीय पर्चा भरा।
नेहरू और उनके बाद की राजनीति
जवाहरलाल नेहरू ने अपने समय में कुछ आदर्श रखे थे। कल-कारखानों का निर्माण, नेशनल बुक ट्रस्ट और साहित्य अकादमी का निर्माण उनके रचनात्मक मानस का परिचायक था। उन्होंने कांग्रेस पार्टी में एक परिपाटी चलाई। डाॅ. राममनोहर लोहिया ने उनकी बराबर आलोचना की, किंतु नेहरू जी ने उनके खिलाफ कांग्रेस का उम्मीदवार चुनाव में कभी खड़ा नहीं किया। उनके बाद कांग्रेस ने यह परंपरा तोड़ दी। नेहरू जी के स्वभाव मेें लोकतंत्र का सुविचार था। उनके बाद ये सुविचार खत्म है। राजनीति स्वार्थपरक होती गई है। पार्टियां एक-दूसरे को ललकार रही हैं।
एक कहानी
महंगाई और भ्रष्टाचार से जनता त्रस्त है। चारों तरफ जनता का हंगामा है। अशांति और विरोध है। लोग जगह-जगह प्रधानमंत्री का पुतला-दहन कर रहे हैं। भूखे-नंगों की टोलियां पागल हो गई हैं। प्रधानमंत्री का बयान मीडिया में आता है- मेरे खिलाफ मेरे विरोधियों की साजिश चल रही है। इनके पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है। इनके साथ सरकार सख्ती से पेश आएगी। जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू हो चुकी है। महंगाई-भ्रष्टाचार कहां नहीं है? हमारे यहां कम है। अमरीका-चीन में हमसे ज्यादा है। हर जगह है। हम विदेशी बैंकों से सबके खाता जमाकर सरकारी खजाने में डाल देंगे। किसके पास कितना काला धन है, इसका खुलासा अपने आप हो जाएगा। जनता बेमतलब पागल हो गई है। विपक्ष ने उसे बहका दिया है। जनता पागल हो गई है। प्रधानमंत्री की कुर्सी अडिग है। भूकंप आ जाए तो बात दूसरी है। प्रधानमंत्री हिले तो जनता भी धराशायी हो जाएगी।
जनता सड़कों पर उतर आई है। महंगाई, बेकारी और भ्रष्टाचार के मूल पर वार कर रही है। संसद में इन सवालों पर बहस चाहती है। सड़क से संसद तक हिल रहा है। इतने में मीडिया की खबर आती है कि प्रधानमंत्री की हत्या हो चुकी है।
प्रधानमंत्री आपातकाल लागू करने का विधेयक लाना चाहते हैं। विरोधी दल इसका विरोध कर रहे हैं। सड़क से संसद तक शोर थम नहीं रहा है। बढ़ता ही जा रहा है।
प्रधानमंत्री राजधानी से उड़े और अपनी हत्या का मुआयना करने घटना-स्थल पर पहुंच गए। उन्होंने बड़े गौर से अपनी लाश को देखा। वे मुस्कुराते हुए बोले- ‘‘नहीं, नहीं। यह लाश मेरी नहीं है। यह लाश तो विपक्षी दल के नेता की है। मैं जिंदा हूं। मेरी प्यारी जनता, मैं जिंदा हूं।’’
संसद हक्का-बक्का थी। संसद से सड़क तक हंगामा लौट आया था। विपक्ष सकते में था। विपक्षी नेता, अपनी लाश पहचानने घटना-स्थल पर रवाना हुए। उन्होंने लाश को चारों तरफ से देखा। कहा, ‘‘यह लाश मैं कतई नहीं हूं। प्रधानमंत्री खुद को मुझे बता रहे हैं।’’
विपक्ष ने संसद चलने नहीं दी। बहस दूसरी दिशा में बदल चुकी थी।
‘‘तुम्हारी लाश है।’’
‘‘मेरी नहीं, तुम्हारी’’
‘‘तुम्हारी’’
‘‘तुम झूठे हो।’’
‘‘हम नहीं, तुम हो।’’
दोपहर तक ऐसा ही चलता रहा।
अध्यक्ष ने उस दिन के लिए संसद स्थगित कर दी। सरकार आपातकाल की मुद्रा में आ गई।
पुलिस ने लाश से घेराबंदी उठा ली थी। नाक पर रूमाल रखकर लोग आ-जा रहे थे।
देश में आपातकाल लागू कर दिया गया था। कई दिनों से पड़ी लाश से बदबू आ रही थी। महामारी फैलने का अंदेशा था। नगर निगम की गाड़ी उस बदबूदार लाश को उठाने के लिए अभी तक नहीं आई थी। जनता की परेशानी बढ़ती जा रही थी। वह चीख पड़ी- यह तुम दोनों की मिली-जुली लाश है, तुम दोनों की।
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