Sunday, August 17, 2014

हर दौर में 'दुश्मन' क़ी पहचान क़ी यह नजर हमें भी हासिल करनी होगी


( कथाकार मधुकर सिंह क़ी स्मृति में संतोष सहर की एक जरूरी टिप्पणी )

मधुकर जी अब हमारे बीच नहीं हैं- आज से ठीक माह भर पहले 15 जुलाई को ही वे हमसे विदा ले चुके हैं- 16 जुलाई को आरा के पार्टी कार्यालय (भाकपा-माले के भोजपुर जिला कार्यालय) में, जहाँ अंतिम दर्शन के लिए उन्हें कुछ देर के लिए रखा गया था, आयोजित श्रद्धांजलि सभा में मैं भी शामिल था- फिर, पटना (20 जुलाई) और 26 जुलाई को आरा में आयोजित सभाओं में भी, जहाँ मुझे उनसे किसी न किसी रूप में जुडे दर्जनों लोगों के संस्मरण और विचार जानने-सुनने का मौका मिला (साथ ही इस सिलसिले से अपनी बातों को रखने का भी). श्रद्धांजलि सभाओं के अधिकांश वक्ता दिवंगत के साथ अपने प्रथम साक्षात्कार और बाद में बने आपसी रिश्तों में आये खटास-मिठास और इस लिहाज से ही कुछेक घटनाओं (कभी-कभी तो बहुत ही विस्तार से) का जिक्र करने के जरिये संपन्न करते हैं. मेरी पूरी कोशिश यह रही कि मैं इससे बचूं और जरूरी बातों पर ही ध्यान दूँ. मुझे इतना समय भी नहीं मिलता और न ही मुझे इसकी जरूरत थी. 

कहते हैं कि आदमी का अस्तित्व इस बात से कत्तई निर्धारित नहीं होता कि वह खुद के बारे में कितने ऊँचे ख्याल रखता है बल्कि इससे होता है कि उसे जाननेवाले लोग उसके बारे में कैसा ख्याल रखते हैं. अपनी नजर में तो हम सभी महान ही होते हैं. आज जहाँ ओछापन ही हमारे समाज (और कमोबेश बौद्धिक समाज का भी) गुणधर्म बना हुआ है, इन श्रद्धांजलि सभाओं में इसकी काई परत छितराती हुई सी नजर आई. यह हमारी नहीं, मधुकर जी क़ी ही उपलब्धि मानी जाएगी- उनके व्यक्तित्व का यह विशिष्ट पहलू मेरे सामने पहली बार इस रूप में उजागर हुआ. मैं अब भी उनके व्यक्तित्व में इस विशिष्ट पहलू के निर्मिति के गुणसूत्रों को तलाशने का प्रयत्न कर रहा हूँ और इस क्रम में बरबस मेरी निगाह एक ही जगह पर जाकर टिक जा रही है. यक़ीनन, ऐसा ही है भी.

अब जबकि मधुकर जी हमारे बीच नहीं हैं उनको और उनकी विरासत को विस्मृति के गर्त में डुबो देने. हड़प लेने या भटका देने क़ी कोशिशें भी तेज होंगी. खतरे क़ी घंटियां सुनाई भी पड़ने लगी हैं. देश-विदेश में कई महान लेखकों-चिंतकों के साथ ऐसा हुआ भी है. 'महानता' के शिखर पर बिठाने का ढोंग करते हुए और अपने ओछेपन को शब्दाडंबरों और लफ्फाजियों की आड़ में छुपाते हुए भी ऐसा किया जा सकता है. लेकिन, हमने यह भी देखा है कि उन देशों की जनता और सच्चे बौद्धिकों ने अपनी विरासत से खिलवाड़ करनेवालों को किस तरह से धूल चटाई है. जर्मनी में टुटपुंजिया समाजवादियों के जरिये 'गेटे' और रूस में जारशाही एजेंटों और उदारपंथियों क़ी ओर से टॉलस्टॉय क़ी विरासत को भी हड़प लेने क़ी जबरदस्त 'कोशिशें हुई थीं जिसके बरख़िलाफ़ अपने समय के दो महान विचारकों फ्रेडरिक एंगेल्स और लेनिन ने मोर्चा संभाला था. उनकी स्मृति और सच्ची विरासत को तनिक भी धूमिल नहीं होने दिया था. अपने देश में भी भगवा ताकतें शहीदे आजम भगत सिंह क़ी विरासत पर हमेशा अपनी गिद्ध नजर गड़ाए रहती हैं. हमें मधुकर सिंह क़ी सच्ची विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने और उसे और भी समृद्ध करने का भी मजबूत संकल्प लेना होगा. मधुकर जी अपने लेखन ही नहीं बल्कि जीवन-व्यवहार में भी 'दुश्मन' खेमे में जा बैठे लोगों क़ी बार-बार और साफ-साफ पहचान क़ी थी. यह नजर हमें भी हासिल करनी होगी. इस बेहद नाजुक बन चुके दौर में तो यह और भी ज्यादा जरूरी है.

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