( कथाकार मधुकर सिंह क़ी स्मृति में संतोष सहर की एक जरूरी टिप्पणी )
मधुकर जी अब हमारे बीच नहीं हैं- आज से ठीक माह भर पहले 15 जुलाई को ही वे हमसे विदा ले चुके हैं- 16 जुलाई को आरा के पार्टी कार्यालय (भाकपा-माले के भोजपुर जिला कार्यालय) में, जहाँ अंतिम दर्शन के लिए उन्हें कुछ देर के लिए रखा गया था, आयोजित श्रद्धांजलि सभा में मैं भी शामिल था- फिर, पटना (20 जुलाई) और 26 जुलाई को आरा में आयोजित सभाओं में भी, जहाँ मुझे उनसे किसी न किसी रूप में जुडे दर्जनों लोगों के संस्मरण और विचार जानने-सुनने का मौका मिला (साथ ही इस सिलसिले से अपनी बातों को रखने का भी). श्रद्धांजलि सभाओं के अधिकांश वक्ता दिवंगत के साथ अपने प्रथम साक्षात्कार और बाद में बने आपसी रिश्तों में आये खटास-मिठास और इस लिहाज से ही कुछेक घटनाओं (कभी-कभी तो बहुत ही विस्तार से) का जिक्र करने के जरिये संपन्न करते हैं. मेरी पूरी कोशिश यह रही कि मैं इससे बचूं और जरूरी बातों पर ही ध्यान दूँ. मुझे इतना समय भी नहीं मिलता और न ही मुझे इसकी जरूरत थी.
कहते हैं कि आदमी का अस्तित्व इस बात से कत्तई निर्धारित नहीं होता कि वह खुद के बारे में कितने ऊँचे ख्याल रखता है बल्कि इससे होता है कि उसे जाननेवाले लोग उसके बारे में कैसा ख्याल रखते हैं. अपनी नजर में तो हम सभी महान ही होते हैं. आज जहाँ ओछापन ही हमारे समाज (और कमोबेश बौद्धिक समाज का भी) गुणधर्म बना हुआ है, इन श्रद्धांजलि सभाओं में इसकी काई परत छितराती हुई सी नजर आई. यह हमारी नहीं, मधुकर जी क़ी ही उपलब्धि मानी जाएगी- उनके व्यक्तित्व का यह विशिष्ट पहलू मेरे सामने पहली बार इस रूप में उजागर हुआ. मैं अब भी उनके व्यक्तित्व में इस विशिष्ट पहलू के निर्मिति के गुणसूत्रों को तलाशने का प्रयत्न कर रहा हूँ और इस क्रम में बरबस मेरी निगाह एक ही जगह पर जाकर टिक जा रही है. यक़ीनन, ऐसा ही है भी.
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