Wednesday, July 23, 2014

भोजपुर स्कूल का पहला कथाकार मधुकर सिंह : रविभूषण


लगभग एक वर्ष पहले हिंदी कथाकार मधुकर सिंह (2 जनवरी, 1934-15 जुलाई, 2014) के सम्मान में आरा में संपन्न एक राष्ट्रीय समारोह में पहली बार मैंने हिंदी कहानी के भोजपुर स्कूल की बात कही थी. हिंदी कहानी के इतिहास में कुछ लोगों ने प्रेमचंद और प्रसाद स्कूल की बात कही है, जिसमें कथाकार प्रमुख है, न कि स्थान, युग, प्रवृत्ति आदि. भोजपुर स्कूल में एक पूरा भौगोलिक क्षेत्र अपनी खूबियों-खराबियों के साथ प्रस्तुत होता है. शिवपूजन सहाय और राजा राधिकारमण सिंह भोजपुर जनपद के थे, लेकिन उनकी कहानियों को भोजपुर स्कूल के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता. एक विशेष जनपद हिंदी के कई कवियों में, जिनमें नागाजरुन, केदार और त्रिलोचन प्रमुख हैं, धड़कता-गूंजता दिखायी देता है, पर कहानियों में कम. रेणु के यहां पूर्णिया है और कई कहानीकारों के यहां भी उनका जनपद है, पर एक जनपद में कहानीकारों का जमघट हो, यह केवल भोजपुर में ही हुआ.

जैसे लमही की पहचान प्रेमचंद से बनी, उसी प्रकार धरहरा की मधुकर सिंह से. कहानी-संसार में मधुकर का आगमन ‘नयी कहानी’ दौर के बाद हुआ. साठोत्तरी कहानीकारों में वे शामिल थे. यद्यपि इस समय के प्रमुख कहानीकारों ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह और रवींद्र कालिया की तरह न वे प्रथम पंक्ति में रहे और न आलोचकों के बीच. मधुकर का बल कलात्मकता पर नहीं वास्तविकता पर था. नामवर ने कहानी-संबंधी आलोचना में ‘यथार्थ’ और ‘यथार्थवाद’को ‘वास्तविकता’ का प्रयोग किया है. अरुण प्रकाश से एक लंबी बातचीत में यथार्थवाद को ‘पराई शब्दावली’ कहा है- ‘जान-बूझ कर मैंने ‘वास्तविकता’ शब्द का प्रयोग किया कि इसमें गुंजाइश है कि हम यथार्थवाद वाले दुष्चक्र से निकल कर अपने कथा-साहित्य पर बात कर सकें.’ स्वतंत्र भारत में घटित तिव्र परिवर्तनों की पहचान हम जिन कहानियों से कर सकते हैं, उनमें मधुकर की कहानियां भी हैं. शिव प्रसाद सिंह, मरकडेय और रेणु के गांवों से मधुकर की कहानियों के गांव भिन्न हैं. गांव बदल रहे थे. नेहरू-युग से मोहभंग के बाद साहित्यिक परिदृश्य ही नहीं, राजनीतिक परिदृश्य भी बदल गया था. राजनीति नयी करवट ले रही थी. 1967 में कई राज्यों में संविद सरकार का गठन हुआ और नक्सलबाड़ी आंदोलन दूर तक फैलने लगा था. यह किसान आंदोलन था और कहानियों में किसान नये तेवर के साथ उपस्थित हो रहे थे. 1964 के बाद 1967 में भी कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हुई. एक नयी चेतना का, किसान-चेतना का जन्म हुआ. कल्याण मुखर्जी की पुस्तक ‘भोजपुर में नक्सलबाड़ी आंदोलन’ से उस समय के भोजपुर को समझा जा सकता है. क्रांतिकारी गीत हजारों लोगों के साथ गाये जाने लगे थे. ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावे ला.’

भोजपुर के कहानीकार आंदोलन में उतरे. उनकी कहानियां पहले की कहानियों से भिन्न थीं. स्वतंत्र भारत में पहली बार क्रांतिकारी राजनीति के साथ क्रांतिकारी या संघर्षशील कहानियां खड़ी हुईं. यह हिंदी कहानी का एक सर्वथा नया दौर था. मधुकर सिंह इसके अगुआ कहानीकार थे. वे केवल लेखन में नहीं, आंदोलन के अनेक मोरचों पर सक्रिय रहे. उनकी कहानियों के पात्र दलित, वंचित, पीड़ित, शोषित, तिरस्कृत, अपमानित थे, जिनकी मुट्ठियां तनी हुई थीं. भूमिहीनों, पिछड़ों, खेतिहर मजदूरों के साथ केवल कहानियों में ही नहीं, आंदोलनों में भी मधुकर डट कर खड़े रहे. वे अकेले नहीं थे. उनके साथ भोजपुर के तमाम कथाकार थे. उन्होंने ‘युवानीति’ जैसी रंग-संस्था के निर्माण में बड़ी भूमिका निभायी थी. कहानी, उपन्यास, नाटक, गीत, संगोष्ठियों से आरा का साहित्य-जगत उन दिनों चमकता था. क्या हम हिंदी प्रदेश के किसी भी स्थान बनारस, इलाहाबाद, दिल्ली आदि को भोजपुर के समकक्ष रख सकते हैं? नामवर की बात छोड़ दें, पटना के गोपाल राय क्या इन्हें देख रहे थे? ‘हिंदी उपन्यास का इतिहास’(2003) में मधुकर सिंह का नामोल्लेख तक नहीं है. ‘हिंदी कहानी का इतिहास भाग-2’ (2011) में इतिहासकार ‘अथक प्रयास के बावजूद मधुकर सिंह की कहानियों के बारे में अपेक्षित सामग्री संकलित नहीं कर सके ’ और ‘उनसे संपर्क स्थापित करने में असफल रहे.’ सुरेंद्र चौधरी और मधुरेश ने संक्षेप में ही सही, मधुकर की कहानियों पर विचार किया.

सिपाही बाप का यह कथाकार बेटा, लकवाग्रस्त व्यवस्था को अपनी कहानियों में चुनौती देता है. क्या विडंबना है कि वे स्वयं पक्षाघात के शिकार हुए. स्वतंत्र भारत में सरकारी योजनाओं का लाभ संपन्न तबके को मिला. सामंत और शक्तिशाली हुए. सामंत, जमींदार, ठेकेदार, माफिया, अफसर, पुलिस, व्यवसायी, उद्योगपति, नेता, मंत्री-सब एक साथ हो गये. मधुकर ने अपनी कहानियों से व्यवस्था को चुनौती दी. ऐसी कहानियों से कलात्मकता की अपेक्षा अनुचित है. वे स्वयं एक सामान्य किसान थे. स्कूल टीचर. पुलिस, सरकार का जनविरोधी चरित्र उनकी कहानियों में है. उनकी कहानियों से एक प्रश्न बार-बार गूंजता है- आजादी किसे मिली? स्वाभाविक था कहानी की अंतर्वस्तु का बदलना. एक नये कथानक का जन्म. इस दौर की उपेक्षा किसान आंदोलन और संघर्षशील पात्रों की उपेक्षा है. प्रेमचंद के बाद खेतों में हल चलानेवालों, भूमिहीन मजदूरों के साथ कलम चलानेवाले कितने कहानीकार हैं? कहां के हैं? हरिजन सेवक, पहला पाठ, सत्ताधारी, अगनुकापड़, लहू पुकारे आदमी, कवि भुनेसर मास्टर सहित कई कहानियों में उनके गहरे सरोकार-संघर्ष देखे जा सकते हैं. लगभग सौ कहानियों और कई उपन्यासों में उनकी चिंताओं की पहचान की जा सकती है.

मधुकर कमलेश्वर के समानांतर आंदोलन से जुड़े. कमलेश्वर पर एक किताब संपादित की. उनका अनुभव संसार व्यापक और समृद्ध था. वे एक साथ प्रगतिशील जनवादी और क्रांतिकारी कथाकार थे. सामाजिक संरचना को बदलने को बेचैन मधुकर ने कहानी की संरचना पर अधिक ध्यान नहीं दिया. इस सामाजिक संरचना को बदलने के लिए प्रेमचंद अपनी रचनाओं में सदैव तत्पर, सक्रिय रहे. मधुकर के यहां भटकाव, विचलन भी है. भीष्म साहनी और अमरकांत जैसे कहानीकारों में जो स्पष्ट वर्ग-चेतना थी, जब उधर आलोचकों ने ध्यान नहीं दिया, तो मधुकर की वर्गीय चेतना को वे कैसे स्वीकार करते? वे जितने प्रिय आरा में थे, उतने बिहार में नहीं, जितने बिहार में उतने दिल्ली में नहीं. उनकी ‘दुश्मन’ कहानी प्रेमचंद के बाद इस विषय पर गंभीरता से लिखी गयी कहानी है. भोजपुर स्कूल को आलोचक स्वीकार करें या नहीं, पर यह कहानीकार ‘लोकल’ होने के बाद ही ‘नेशनल’ हुआ.

Prabhat Khabar Jul 21 2014 से साभार

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