Monday, July 14, 2014

रूढ़ियों से भिड़ते हुए आधुनिक रास्ते पर चलने की उनकी जीवन-कथा हमेशा रहेगी



सलाम ज़ोहरा सहगल !


जोहरा सहगल नहीं रहीं। बीती 10 जुलाई को उन्होने इस दुनिया को अलविदा कहा। सबकी मौत का एक दिन मुअय्यन है, पर जाने क्यों, उन्हें देख लगता था कि वे हमेशा रहेंगी। उनकी जीवंत, गतिशील और आवेगमय छवि उनके चाहने वालों की आँखों में हमेशा बनी रहेगी।



ज़ोहरा बरतानवी हुकूमत के दौर में 1912 में सहारनपुर में रोहिल्ला पठानों के खानदान में पैदा हुईं। क्वींस कॉलेज लाहौर में शिक्षा पाई। ढर्रे पर चलना उनकी तबीयत को गवारा न था, सो कुछ अलग करने की सोची। मामा सईदुज्जफर खान स्कॉटलैंड में थे, उन्होने ज़ोहरा को नाटक सीखने को बुला लिया। उस जमाने में ज़ोहरा कार से लाहौर से फिलिस्तीन होते हुए मिस्र तक गई। यूरोप पहुँच कर उन्होने आधुनिक नृत्य का अध्ययन किया। यहीं प्रख्यात नृत्य गुरु उदयशंकर से उनकी मुलाक़ात हुई, बाद में जिनके साथ ज़ोहरा ने काम किया।


उदयशंकर के साथ लंबे समय तक काम करने के दौरान ज़ोहरा, कामेश्वर सहगल से मिलीं। दोनों ने मिलकर नृत्य में जबर्दस्त काम किया। विभाजन के दौरान दोनों बंबई आ गए और ज़ोहरा की जिंदगी का नया दौर शुरू हुआ।


ज़ोहरा ने 1945 में नाटक की दुनिया में कदम रखा और उनका जुड़ाव प्रगतिशील कला-समूहों, पृथ्वी थियेटर और इप्टा से हुआ। इप्टा की फिल्म-प्रस्तुतियों, 'धरती के लाल' [ख्वाजा अहमद अब्बास] और 'नीचा नगर' [चेतन आनंद] में उन्होने काम किया। इब्राहिम अलकाजी के नाटक 'धरती के अंधेरे' में उन्होने काम किया। बीच-बीच में वे फिल्मों में नृत्य-निर्देशन भी करती रहीं।


59 में पति की मृत्यु के बाद वे दिल्ली की नाट्य अकादमी की निदेशक बनाई गईं। 62 में अध्ययन के लिए लंदन गईं और वहाँ कई धारावाहिकों और फिल्मों में काम किया। भारत लौटकर उनके व्यक्तित्त्व का एक और पहलू उभरा- उन्होने कई जगह विभिन्न कवियों के काव्य-पाठ की प्रस्तुति दी। फ़ैज़ उनके पसंदीदा शायरों में से एक थे। बाद के दिनों में हिन्दी मुख्यधारा सिनेमा में उन्हें कई तरह के अभिनय करने का मौका मिला, 'दिल से' से लेकर 'साँवरिया' तक बीसियों फिल्मों में उन्होने काम किया और अपनी अभिनय प्रतिभा को स्थापित किया। आखिरी दिनों में वे दिल्ली में रह रही थीं। सरकार उन्हें निचले तले का मकान भी उपलब्ध नहीं करा पाई जिसके लिए वे बार-बार दरख्वास्त करती रहीं।


कम ही लोगों को पता होगा कि महिला आंदोलन से उनकी एकजुटता थी। एक बार उन्होने 'अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन' के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता भी की थी। मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब ने ज़ोहरा सहगल को याद करते हुए कहा कि 'वह अपनी शर्तों पर जीने वाली महिला थीं।' वे एक ऐसी महिला थीं, जिन्होंने अपने लिए जिंदगी चुनी, दुनिया से भिड़ते हुए अपना खुद का रास्ता बनाया। शायद ख्वाजा अहमद अब्बास ने ऐसा ही कुछ देखा-महसूस किया होगा, जब उन्होने ज़ोहरा को 'भारत की इजाडोरा डंकन' कहा था।


ज़ोहरा सहगल नहीं रहीं, पर रूढ़ियों से भिड़ते हुए आधुनिक रास्ते पर चलने की उनकी जीवन-कथा हमेशा रहेगी। चिरयुवा ज़ोहरा सहगल अपने आखिरी दिनों में भी वैसी ही रहीं- जीवन से आवेग से दमकती हुई ! 


जन संस्कृति मंच उन्हें आखिरी सलाम पेश करता है।


जन संस्कृति मंच की ओर से जारी। 

No comments:

Post a Comment