Monday, June 9, 2014

एक रेलयात्री की सामान्य आपबीती


गरीब रथ में जब टिकट लिया था तब वेटिंग 236 था। जिस दिन सफर की तारीख थी, उस दिन सुबह से कन्फर्मेशन की स्थिति जानने के लिए लगातार कोशिश करता रहा। मेरे साथ एक सीनियर कामरेड थे जो कई दिनों से टिकट कन्फर्म न होने के कारण परेशान थे, बाद उन्होंने भी उसी ट्रेन मेें तत्काल में टिकट लिया था और उनका सीट भी कन्फर्म हो गया। मैंने एक रेलवे अधिकारी मित्र से भी आग्रह किया था कन्फर्मेशन के लिए। टे्रन को शाम पांच बजे खुलना था। लेकिन भागलपुर से आनंदविहार आने वाली ट्रेन ही समय पर नहीं आई थी। वह लगभग 10 घंटे लेट पहुंची। शाम 7 बजे मेरा भी टिकट कन्फर्म हो गया। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि सीट की स्थिति क्या होगी? असल में गरीब रथ की कुछ बोगियों में साइड में भी तीन-तीन सीटें लगी होती हैं। मेरे सफर में आम तौर पर एक बड़ा बैग रहता है। लेकिन इस बार तीन भारी सामान थे और उनको घर ले जाना जरूरी था। इसीलिए बुकिंग के वक्त अपर बर्थ का चुनाव किया था। खैर, कन्फर्मेशन के बाद जो सीट नंबर था, सामान्य बोगियों के लिहाज से उसे अपर बर्थ ही होना चाहिए, यह सोचकर मैने सफर के सामान को कम नही किया। 
रेल प्रशासन ने ट्रेन के प्रस्थान का समय पहले रात 12 बजे और बाद में रात 3 बजे तय किया। मैंने 1:20 का एलार्म लगाया। लेकिन ठीक से नींद नहीं आई, रात 12:30 में ही जाने की तैयारी में जुट गया। एक बार फिर इंटरनेट कनेक्शन और कम्प्यूटर आॅन किया। गाड़ी के प्रस्थान संबंधी सूचना देखी। प्रस्थान का संभावित समय 3 बजे रात ही था। 1:30 में हम सड़क पर आए। एक आॅटो किया। मेट्रो से जहां जाने में 10-10 रुपये लगते वहीं आॅटो वाला 100 रु. पर तैयार हुआ। वह तेज गति से आॅटो चला रहा था। शायद उसका अगला चक्का कुछ टाल था, जिसकी वजह से मुझे आॅटो कुछ असंतुलित ढंग से चलता लग रहा था। साल के शुरू में हुए आॅटो एक्सिडेंट की भी रह-रह के याद आ रही थी। कभी कभी लग रहा था कि ड्राइवर हल्की नींद में है या यह भी आशंका हो रही थी कि कहीं दारु तो नहीं पी रखी है, हालांकि शराब की कोई गंध नहीं थी। मैं नास्तिक, किसी भगवान को भी नहीं पुकार सकता था। ड्राइवर ही हमारा भगवान था, कई बार जिसका एक ही हाथ स्टेरियरिंग पर रहता था, दूसरा हाथ माथा के पीछे गर्दन के उपर खुजाने में व्यस्त था। खैर, हम सुरक्षित स्टेशन पहुंच गए। 
ट्रेन आधा घंटा पहले स्टेशन पर आ गई। मैं अपने कोच में घुसा और अपनी सीट पर पहुंचा. लेकिन जिसका डर था, वही बात हो गई। वह सीट तो साइड की मिडिल सीट निकली। तब तक किसी सज्जन ने अपने सीटों की संख्या सुनाई, मैं चौंका- अरे, उसमें तो मेरा सीट नंबर भी है। उनसे पूछा तो उन्होंने अपने मोबाइल का मैसेज बाॅक्स खोलके दिखा दिया। वही नंबर! मैंने भी अपने मोबाइल का इनबाॅक्स खोलके दिखाया। तब तय हुआ कि टीटी आएगा, तो वहीं फैसला करेगा। इसी बीच दो महिलाएं बाल-बच्चा समेत वहां आकर बैठ गईं। उन्होंने भी वही नंबर बताया। मैंने कहा कि यह नीचे के बर्थ का नंबर नहीं है, यह नंबर मिडिल बर्थ का है और वह मेरा है। अगर टीटी के भरोसे रहना होता, तो शायद और परेशानी होती। वे लोग तो सात-आठ घंटे बाद नजर आए। बोगी के बाहर लगे रिजर्वेशन चार्ट से निर्णय हुआ कि वह सीट मेरा ही है। खैर, मैंने जल्दी-जल्दी दो सीटों के नीचे दो सामानों को व्यवस्थित किया। बाद में जब नीचे के बर्थ वाले की मेहरबानी हुई, तब मैंने मिडिल बर्थ को सेट किया और तीसरे बैग को सिरहाने रखके लेटा। 
पानी का बोतल ले रखा था। लेकिन अपना ही पिछला सबक इस बार भूल गया था। सबक यह है कि ट्रेन लेट होने पर खाने-पीने का सामान पहले ही ले लेना चाहिए, वर्ना अनिच्छा से उपवास करना पड़ सकता है। ऐसा ही हुआ। हमारी सीनियर कामरेड दो बोगी पीछे थे। उन तक जा पाना भी संभव नहीं था। मेरा जूता यात्रियों के सामान के नीचे दबा था। ट्रेन में जितने रिजर्वेशन वाले यात्री थे, उससे ज्यादा वेटिंग वाले थे। खैर, गरीब रथ के एसी ने जरूर सहूलियत दी। 
कायदे से ट्रेन को बारह घंटे में यानी 3 बजे शाम तक आरा पहुंच जाना चाहिए था। लेकिन कानपुर के बाद पहले से ही देरी से खुलने वाली ट्रेन और देर करने लगी। कानपुर निकल गया, तो सोचा कि इलाहाबाद में कुछ खाने को लिया जाएगा। लेकिन वहां फुड स्टाॅलों पर यात्रियों की इतनी भीड़ लग गई कि कुछ भी ले पाना संभव न हुआ। मेरी ही तरह निराश कुछ यात्रियों ने खुद को सांत्वना दी कि कोई बात नहीं, मुगलसराय में ले लेंगे। कानपुर से ट्रेन को मुगलसराय पहुंचने में करीब 10 घंटे लग गए। सुपर फास्ट ट्रेनें भी इस बीच मालगाडि़यों के सम्मान में उनके पीछे-पीछे चलती हैं, रुककर उन्हें रास्ता देती हैं। कई बार का ऐसा अनुभव है। हर बार लगता है कि यात्रियों का समय रेल प्रशासन तो बर्बाद करता ही है, साथ ही सुपर फास्ट चार्ज भी ट्रेनों की देरी की वजह से एक किस्म की लूट लगती है। 
इलाहाबाद पहुंचते-पहुंचते नीचे के यात्रियों का दबाव बढ़ गया था कि बीच वाली सीट को समेट दिया जाए। मैंने कहा कि मैं अपना बैग कहां रखूंगा। खैर, उन्हें बैठने में दिक्कत हो रही थी, सो उन्होंने एक सीट पर मेरा बैग व्यवस्थित किया। सीट समेट दी गई। मुझे नीचे की सीट पर एक साइड में लगभग उकडूं सा बैठने को मिला। 
सामने की दो सीटों पर कुछ नौजवान विराजमान थे। वे भी ट्रेन की लेटलतीफी से उबे हुए थे। उन लोगों की बातें दिलचस्प थी। आजकल जिस नेता के चमत्कार के महिमामंडन में देश की मीडिया डूबी हुई है। उससे वे चिढ़े हुए थे। वे पढ़े-लिखे और कहीं रोजगार करने वाले लग रहे थे। उनमें से एक ने चमत्कारी नेता का नाम लेते हुए कहा कि हद हो गई है, दिन रात उसी का नाम, कुछ भी हगेगा तो उसे दिखाएंगे। कि आज जो हगा है, वह नीले रंग का है, आइए देखते हैं इस नीले रंग का क्या महत्व है? मैं बड़ी दिलचस्पी से उन्हें सुन रहा था। कहा जा रहा है कि नौजवान बड़े फिदा हैं उस पर, लेकिन यहां तो ये नौजवान उससे उबे हुए थे। उसके प्रति किसी सम्मान का भाव भी नहीं था उनमें और उसके प्रति किसी किस्म की उम्मीद भी मुझे उन नौजवानों में नजर नहीं आ रही थी। सिद्धांत व नीतियों को भूलकर अपने स्वार्थ के लिए उस तथाकथित चमत्कारी नेता की पार्टी का साथ देने वाले मौकापरस्त नेताओं पर भी वे कटाक्ष कर रहे थे। जाहिर है यह भी एक यथार्थ था, जिसका टीवी चैनलों से अलग मुझे रेल के सफर में अहसास हो रहा था।
अब ट्रेनों और प्लेटफार्म की दुनिया में पहले जैसी कहां रही। ताजा पुड़ी सब्जी आदि बेचने वाले वहां से खदेड़े जा चुके हैं। मुगलसराय के ठीक पहले के स्टेशन पर भीगे हुए चना वाले आए तो मेरा उपवास टूटा। अंततः साढ़े छह बजे ट्रेन मुगलसराय पहुंची तो यहां दो समोसे और एक पैटीज लेने में सफल हुआ, जाहिर है जो तुरत के बने नहीं थे। खाने के सामानों की कीमत भी पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ा दी गई है। इसके बाद एक चायवाले से ‘रामप्यारी चाय’ ली। मालूम हुआ जो चाय पिछले कुछ ही माह पहले 7 रुपये की मिलती थी, वह 10 रुपये की हो गई है। 
खैर, मुगलसराय से आरा तक ट्रेन ठीक-ठाक चली और ट्रेन के चलने के साढ़े उन्नीस घंटे बाद और रेलवे टाइम टेबुल के निर्धारित समय से साढ़े अट्ठाइस घंटे बाद आरा पहुंचा। दो बैग और एक बोरे के साथ मैं बाहर आया। रेलवे स्टेशन के कैंपस में रिक्शावाले कम ही थे। जो थे भी वे तैयार न हुए। और जैसा कि ऐसी परिस्थितियों में होता है, मैं अपने बाजुओं और कंधों पर भरोसा करता हूं। चल पड़ा। तीन-चार सौ कदम बाद एक रिक्शा वाला विपरीत दिशा से आता हुआ दिखाई दिया। पुकारने पर वह रुका। मैंने अपने मुहल्ले का नाम बताया। उसके बाद वह कुछ सोचने लगा, फिर कहा कि रिक्शा जमा करने का समय हो गया है। मैं फिर आगे बढ़ चला। फिर डेढ़ सौ कदम चलने के बाद लगा कि अब खुद ढोकर ले जाना मुश्किल है। एक और रिक्शे वाले को आवाज दी, वह भी नहीं रुका। पैदल मुहल्ले में पहुंचने में दस मिनट से ज्यादा नहीं लगता, पर सामान भारी था। ट्रेन समय पर पहुंचती तो सहजता से किसी दोस्त को बुला लेता। दस बजे रात को क्या करूं! सब दिन भर के काम के बाद खाने-पीने की तैयारी में लगे होंगे। आखिरकार अपने एक दोस्त को फोन किया, उसने अपने भतीजे को स्कूटी से भेजा। उसके बाद मैं सही-सलामत सामान सहित घर पहुंचा। 
यह ट्रेन वातानुकूलित थी और यात्री को स्टेशन के पास ही एक ही मुहल्ले में जाना था, जरा सोचिए गैर वातानुकूलित ट्रेनों से सफर करने वाले और किसी स्टेशन पर उतरकर दूर गांव-देहात जाने वाले यात्रियों का क्या हाल होता होगा!

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