हम सबके प्रिय कवि वीरेन डंगवाल इस 5 अगस्त को 66 साल के हो जाएंगे। इसी साल हृदयाघात को उन्होंने शिकस्त दी। उम्मीद है कि जीवन की उर्जा से भरपूर वीरेन दा कैंसर को भी शिकस्त देंगे.जिसके इलाज के लिए वे दिल्ली में हैं। उनके जल्दी सेहतमंद होने और लंबे जीवन की कामना के साथ उनकी कविताओं पर एक पुराने लेख का सम्पादित अंश यहाँ पेश है : सुधीर सुमन
किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है जो काला है?
मुझे याद है कि जब वीरेन दा की कविता ‘हमारा समाज’ प्रकाशित हुई थी, तो सहज हमारी जुबान पर चढ़ गई और तब से अब तक कई बार हमने समाज में सफल और समृद्ध माने जाने वालों के समाजविरोधी चेहरों की शिनाख्त करते हुए इन पंक्तियों को दुहराया होगा। मुक्तिबोध जिस सफलता के बारे में कहते हैं कि वह चक्करदार जीनों पर मिलती है छल, छद्म, धन की, वह वीरेन जी के यहां आकर मानो इस अनुभवजन्य सवाल में बदल जाता है कि हमने ये कैसा समाज रच डाला है/ इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है। हालांकि आजकल जिस प्रकार छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति हिंदी साहित्य जगत में बढ़ी है, उसे देखते हुए कई बार यह डर लगता है कि कोई यह न कह दे कि वीरेन दा को काले रंग से ही नफरत है? लेकिन तब उस कविता ‘पी.टी.ऊषा’ (काली तरुण हिरनी/ अपनी लम्बी चपल टाँगों पर/ उड़ती है/ मेरे गरीब देश की बेटी) को वे कहां रखेंगे, जो हमारी बेहद प्रिय कविता है और जिसे हम गरीबी, श्रम और रंग के आधार पर भेदभाव करने वाले अभिजात्यवर्गीय संस्कारों के खिलाफ एक जवाब की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं?
‘हमारा समाज’ कविता में दरअसल कालापन कई रूपों में आता है-
‘मोटर सफेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिंताकुल चेहरा-बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है
हर सांस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
वह भव्य इमारत काली है।
कहने का मतलब है कि तकनीकि विकास, व्यवसाय, सौंदर्य, बौद्धिकता, कानून, संसद- सब पर काली शक्तियां हावी हैं और काली इच्छाओं की बिसात बिछाकर लोगों को घेर रही हैं। गौर से देखें तो जिन जनसामान्य, गरीब-दलित-पिछड़ों और आदिवासियों को आमतौर पर काले लोग के रूप में देखा जाता रहा है, उस दृष्टि का ही मानो यह कविता प्रतिवाद करती है, कि काले तो दरअसल खुद को सफल, उज्जवल और सभ्य मानने वाले लोग और काली तो उनके द्वारा रची गई व्यवस्था है, काला जादू तो दरअसल वे फेर रहे हैं। वही जादू है जिसने लोगों को अपनी व्यक्तिगत-पारिवारिक महत्वांकाक्षाओं तक केंद्रित कर दिया है और मनुष्य को गैर सामाजिक बना रहा है, वर्ना प्यार, भोजन-वस्त्र, सर पर छत, बीमार पड़ने पर थोड़ा ढब का इलाज, बेटे-बेटियों को ठिकाना, कुछ इज्जत-मान और कभी कभार कुछ जश्न किसे नहीं चाहिए। समाज जिस भयानक आत्मकेंद्रित अंधड़ में उड़ रहा है, वीरेन दा की कविता उस अंधड़ में उड़ने से इनकार ही नहीं करती, बल्कि पाठक को भी इनकार के लिए प्रेरित करती है- ‘बोलो तो कुछ करना भी है/ या काला शरबत पीते-पीते मरना है?’
वीरेन डंगवाल वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध कवि हैं, विचारधारा उनकी कविता में कहीं से अदृश्य नहीं है, लेकिन वह फैशन की तरह टांगे-फिरने और हमेशा प्रदर्शन करते रहने की चीज भी नहीं है, वह कविता में बड़ी सहजता से घुली हुई रहती है। अनुभवों की प्रौढ़ता और वैचारिक गहराई उनमें बहुत है, पर वैचारिक अनुभववाद का कोई बोझ वे पाठकों पर नहीं लादते, बल्कि कहने के नए नए तरीके अपनाते हुए एक युवोचित मुद्रा के साथ वे अनुभववाद के दबावों से खुद को मुक्त करते रहते हैं और पाठकों के अनुभव में शामिल होते हुए अचानक किसी नाजुक मोड़ पर उन्हें पकड़ लेते हैं और इस तरह सवालों से घेरते हैं कि वे लाजवाब हो जाते हैं। वे हमारे समकालीन समाज के खतरों को बड़ी ही सहजता से चिह्नित करने वाले कवि हैं। समाज जिस अमानुषिक रास्ते पर जा रहा है, उस पर वे ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’ लगाने की जद्दोजहद करते हैं। गहरे व्यंग्य और वक्रोक्ति वाली इस कविता ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’ में भद्र लोगों के यथास्थितिवाद पर वे तीखा हमला करते हैं-
‘हमारा समाज’ कविता में दरअसल कालापन कई रूपों में आता है-
‘मोटर सफेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिंताकुल चेहरा-बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है
हर सांस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
वह भव्य इमारत काली है।
कहने का मतलब है कि तकनीकि विकास, व्यवसाय, सौंदर्य, बौद्धिकता, कानून, संसद- सब पर काली शक्तियां हावी हैं और काली इच्छाओं की बिसात बिछाकर लोगों को घेर रही हैं। गौर से देखें तो जिन जनसामान्य, गरीब-दलित-पिछड़ों और आदिवासियों को आमतौर पर काले लोग के रूप में देखा जाता रहा है, उस दृष्टि का ही मानो यह कविता प्रतिवाद करती है, कि काले तो दरअसल खुद को सफल, उज्जवल और सभ्य मानने वाले लोग और काली तो उनके द्वारा रची गई व्यवस्था है, काला जादू तो दरअसल वे फेर रहे हैं। वही जादू है जिसने लोगों को अपनी व्यक्तिगत-पारिवारिक महत्वांकाक्षाओं तक केंद्रित कर दिया है और मनुष्य को गैर सामाजिक बना रहा है, वर्ना प्यार, भोजन-वस्त्र, सर पर छत, बीमार पड़ने पर थोड़ा ढब का इलाज, बेटे-बेटियों को ठिकाना, कुछ इज्जत-मान और कभी कभार कुछ जश्न किसे नहीं चाहिए। समाज जिस भयानक आत्मकेंद्रित अंधड़ में उड़ रहा है, वीरेन दा की कविता उस अंधड़ में उड़ने से इनकार ही नहीं करती, बल्कि पाठक को भी इनकार के लिए प्रेरित करती है- ‘बोलो तो कुछ करना भी है/ या काला शरबत पीते-पीते मरना है?’
वीरेन डंगवाल वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध कवि हैं, विचारधारा उनकी कविता में कहीं से अदृश्य नहीं है, लेकिन वह फैशन की तरह टांगे-फिरने और हमेशा प्रदर्शन करते रहने की चीज भी नहीं है, वह कविता में बड़ी सहजता से घुली हुई रहती है। अनुभवों की प्रौढ़ता और वैचारिक गहराई उनमें बहुत है, पर वैचारिक अनुभववाद का कोई बोझ वे पाठकों पर नहीं लादते, बल्कि कहने के नए नए तरीके अपनाते हुए एक युवोचित मुद्रा के साथ वे अनुभववाद के दबावों से खुद को मुक्त करते रहते हैं और पाठकों के अनुभव में शामिल होते हुए अचानक किसी नाजुक मोड़ पर उन्हें पकड़ लेते हैं और इस तरह सवालों से घेरते हैं कि वे लाजवाब हो जाते हैं। वे हमारे समकालीन समाज के खतरों को बड़ी ही सहजता से चिह्नित करने वाले कवि हैं। समाज जिस अमानुषिक रास्ते पर जा रहा है, उस पर वे ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’ लगाने की जद्दोजहद करते हैं। गहरे व्यंग्य और वक्रोक्ति वाली इस कविता ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’ में भद्र लोगों के यथास्थितिवाद पर वे तीखा हमला करते हैं-
‘अब दरअसल सारे खतरे खत्म हो चुके
प्यार की तरह
दरअसल चारों तरफ चैन ही चैन है
..........................................
डोमा जी उस्ताद सुधर चुके
और विधानसभा भी कभी की वातानुकूलित की जा चुकी
मान लिया भद्र लोगों, कोई खतरा नहीं बाकी बचा।’
इस तरह वे अंततः खतरे की ही निशानदेही करते हैं, कि किस तरह पूंजी और अपराध के बल पर मौजूदा सभ्यता प्रेम को भी नष्ट कर रही है और खतरों के अहसास को भी। कवि यह भी कहना चाहता है कि प्रेम का अभाव भी खतरा महसूस करने की क्षमता का नाश करता है। इस तरह अपने आसपास हड्डी खोपड़ी खतरा निशान कम नजर आने के तथ्य से शुरू होकर कविता अंततः उस हकीकत तक ले जाती है, जहां मनुष्य को बर्बर और संवेदनहीन बनाने देने की निरंतर प्रक्रिया चल रही है, जहां जितनी सुविधाएं मिलती हैं, उतना ही खतरे का बोध नष्ट होता है। ‘मार्च की एक शाम में आईआईटी कानपुर’ में भी वे इसी खतरनाक प्रक्रिया को दिखाते हैं कि किस तरह उस्ताद हत्यारे गर्वीले गरदनों वाले किशोरों को अपना सहयोगी बना डालते हैं, किशोरों की मेधा अपने समाज के लोगों के दुख और मुश्किलों को हल करने में नहीं लगती, बल्कि बिल गेट्स जैसों की स्वार्थसिद्धि में जाया होती है। इसी विडंबना पर उन्होंने लिखा है- कितने अभागे हैं वे पुल/ जो सिर्फ गलियारें हैं, जिसके नीचे से गुजरती नहीं/ कोई नदी?
प्यार की तरह
दरअसल चारों तरफ चैन ही चैन है
..........................................
डोमा जी उस्ताद सुधर चुके
और विधानसभा भी कभी की वातानुकूलित की जा चुकी
मान लिया भद्र लोगों, कोई खतरा नहीं बाकी बचा।’
इस तरह वे अंततः खतरे की ही निशानदेही करते हैं, कि किस तरह पूंजी और अपराध के बल पर मौजूदा सभ्यता प्रेम को भी नष्ट कर रही है और खतरों के अहसास को भी। कवि यह भी कहना चाहता है कि प्रेम का अभाव भी खतरा महसूस करने की क्षमता का नाश करता है। इस तरह अपने आसपास हड्डी खोपड़ी खतरा निशान कम नजर आने के तथ्य से शुरू होकर कविता अंततः उस हकीकत तक ले जाती है, जहां मनुष्य को बर्बर और संवेदनहीन बनाने देने की निरंतर प्रक्रिया चल रही है, जहां जितनी सुविधाएं मिलती हैं, उतना ही खतरे का बोध नष्ट होता है। ‘मार्च की एक शाम में आईआईटी कानपुर’ में भी वे इसी खतरनाक प्रक्रिया को दिखाते हैं कि किस तरह उस्ताद हत्यारे गर्वीले गरदनों वाले किशोरों को अपना सहयोगी बना डालते हैं, किशोरों की मेधा अपने समाज के लोगों के दुख और मुश्किलों को हल करने में नहीं लगती, बल्कि बिल गेट्स जैसों की स्वार्थसिद्धि में जाया होती है। इसी विडंबना पर उन्होंने लिखा है- कितने अभागे हैं वे पुल/ जो सिर्फ गलियारें हैं, जिसके नीचे से गुजरती नहीं/ कोई नदी?
वीरेन डंगवाल की कविता उस हर शख्स से सवाल करती है, जिसके बल पर मनुष्य विरोधी व्यवस्था चल रही है, चाहे वे आईआईटी कानपुर से निकलने वाली प्रतिभाएं हों या राम सिंह जैसा सैनिक।
जिस रोज भारत को आजादी मिलने की बात की जाती है, उससे 10 दिन पहले वीरेन डंगवाल का जन्म हुआ। 5 अगस्त 2013 को जब वे 66 साल को हो रहे हैं, तो इस देश की उस आजादी के भी 66 साल होने वाले हैं, जिसकी व्यवस्था पहले से भी ज्यादा राम सिंह को बर्बर बनाते हुए अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में ‘राम सिंह’ कविता के सवाल पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक लगने लगते हैं-
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी ऊँगली हो ?
किसका उठा हुआ हाथ ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफीस दस्ताना?
जिंदा चीज में उतरती हुई किसके चाकू की धार
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते हैं?
जो रोज रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।
इन खतरनाक विडंबनाओं और गहरी चिंता वाली कविताओं के साथ-साथ वीरेन डंगवाल की कविताओं में जीवन के छोटे-छोटे सुखकर पलों, दृश्यों और अहसासों को भी भीतर भर लेने की भरपूर कोशिश है, पर इस कोशिश में भी फिक्र से नाता कहीं नहीं टूटता। चाहे ‘वसंत-दर्शन’ हो या ‘रात की रानी’, ‘जहीरूद्दीन डागर का धु्रपद सुनकर’ हो या ‘पोदीने की बहक’- इनमें सुखकर अनुभूतियां भी किसी बड़ी फिक्र से जोड़ देती है।
आम तौर पर वीरेन जी की जो कविताएं ‘हल्के-फुल्के’ अंदाज में शुरू होती हैं, उनका भी अंत कभी हल्केपन के साथ नहीं होता। साहित्य में आजकल जो हर गंभीर मुद्दे को विमर्श के नाम पर हल्का और सतही बना देने या कभी कभी मजाक में तब्दील कर देने की प्रवृत्ति बढ़ी है, वीरेन डंगवाल की कविताएं ठीक उसकी विपरीत दिशा में चलती हैं। यहां ‘पोदीना’, ‘समोसा’, ‘पोस्टकार्ड’, ‘चूना’, ‘तम्बाकू’ या ‘जलेबी’ जैसी चीजों का कविता का विषय बनना किसी चमत्कार प्रदर्शन की मंशा से नहीं हुआ है, बल्कि ये चीजें साम्राज्यवादी बाजाद के प्रतिकार स्वरूप भी कविता में दाखिल हुई हैं। ये अभिजात्यवर्गीय दुनिया के नकार और सामान्य लोगों के जीवन से लगाव का भी पता देती हैं। इतना ही नहीं, जलेबी अगर धनुर्धारी नायकों और गांधी जी से भी ताकतवर दिखती है या पोदीने की बात हिंदुत्ववादी नहीं समझते, जबकि असफल निराश लोहियावादी को पोदीने की चटनी से तृप्ति मिलती है, तो इसकी साफ वजह यह है कि वैचारिक तौर पर कवि इन विचारधाराओं को अप्रासंगिक मानता है।
जिस रोज भारत को आजादी मिलने की बात की जाती है, उससे 10 दिन पहले वीरेन डंगवाल का जन्म हुआ। 5 अगस्त 2013 को जब वे 66 साल को हो रहे हैं, तो इस देश की उस आजादी के भी 66 साल होने वाले हैं, जिसकी व्यवस्था पहले से भी ज्यादा राम सिंह को बर्बर बनाते हुए अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में ‘राम सिंह’ कविता के सवाल पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक लगने लगते हैं-
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी ऊँगली हो ?
किसका उठा हुआ हाथ ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफीस दस्ताना?
जिंदा चीज में उतरती हुई किसके चाकू की धार
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते हैं?
जो रोज रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।
इन खतरनाक विडंबनाओं और गहरी चिंता वाली कविताओं के साथ-साथ वीरेन डंगवाल की कविताओं में जीवन के छोटे-छोटे सुखकर पलों, दृश्यों और अहसासों को भी भीतर भर लेने की भरपूर कोशिश है, पर इस कोशिश में भी फिक्र से नाता कहीं नहीं टूटता। चाहे ‘वसंत-दर्शन’ हो या ‘रात की रानी’, ‘जहीरूद्दीन डागर का धु्रपद सुनकर’ हो या ‘पोदीने की बहक’- इनमें सुखकर अनुभूतियां भी किसी बड़ी फिक्र से जोड़ देती है।
आम तौर पर वीरेन जी की जो कविताएं ‘हल्के-फुल्के’ अंदाज में शुरू होती हैं, उनका भी अंत कभी हल्केपन के साथ नहीं होता। साहित्य में आजकल जो हर गंभीर मुद्दे को विमर्श के नाम पर हल्का और सतही बना देने या कभी कभी मजाक में तब्दील कर देने की प्रवृत्ति बढ़ी है, वीरेन डंगवाल की कविताएं ठीक उसकी विपरीत दिशा में चलती हैं। यहां ‘पोदीना’, ‘समोसा’, ‘पोस्टकार्ड’, ‘चूना’, ‘तम्बाकू’ या ‘जलेबी’ जैसी चीजों का कविता का विषय बनना किसी चमत्कार प्रदर्शन की मंशा से नहीं हुआ है, बल्कि ये चीजें साम्राज्यवादी बाजाद के प्रतिकार स्वरूप भी कविता में दाखिल हुई हैं। ये अभिजात्यवर्गीय दुनिया के नकार और सामान्य लोगों के जीवन से लगाव का भी पता देती हैं। इतना ही नहीं, जलेबी अगर धनुर्धारी नायकों और गांधी जी से भी ताकतवर दिखती है या पोदीने की बात हिंदुत्ववादी नहीं समझते, जबकि असफल निराश लोहियावादी को पोदीने की चटनी से तृप्ति मिलती है, तो इसकी साफ वजह यह है कि वैचारिक तौर पर कवि इन विचारधाराओं को अप्रासंगिक मानता है।
वीरेन डंगवाल की कविताओं में सामान्य और नगण्य-सी लगने वाली चीजों के प्रति जो लगाव है, वह एक राजनैतिक समझ की ही देन है। सोवियत ध्वंस के बाद जो लोग चरम निराशा और हताशा मे डूबकर अपनी आस्थाएं बदलने लगे थे, उनकी कतार में वीरेन कभी शामिल नहीं हुए। सोवियत संघ की स्मृति में रचित ‘सितारों के बारे में’ कविता में उनका साफ संकेत है कि अभी दिशा तो बता ही सकती है उस व्यवस्था की स्मृति।
अपने समय की जटिलताओं से वीरेन डंगवाल की कविता दूर नहीं भागती, बल्कि व्यवस्था के जाल में फंसने वालों से बारंबार सवाल करती है-
‘‘जरा सोचो, अक्सर वहीं क्यों जलाई गई बत्तियां खूब
जहां उनकी सबसे कम जरूरत
जिन पर चलते सबसे कम मनुष्य
आखिर क्यों वही सड़कें बनी चौड़ी -चकली?
खुशबुएं बनाने का उद्योग
आखिर कैसे बन गया इतना भीमकाय
पसीना जबकि हो गया एक फटा उपेक्षित जूता
हमारे इस समय में
जबकि सबसे साबुत सच तब भी वही था।
इन नौजवानों से कैसे छीन लिया गया उनका धर्म
और क्यों भर जाने दिया उन्होंने अपने दिमाग में
सड़ा हुआ जटा-जूट-घास-पात?
कहां से चले आए ये गमले सुसज्जित कमरों के भीतर तक
प्रकृति की छटा छिटकाते
जबकि काटे जा रहे थे जंगल के जंगल
आदिवासियों को बेदखल करते हुए?
आखिर लपक क्यों लिया हमने ऐसी सभ्यता को
लालची मुफ्तखोरों की तरह? अनायास?
(तारंता बाबू से कुछ सवाल)
हमारे भीतर मौजूद जनतांत्रिक संवेदनशीलता को खत्म करने के लिए शासकवर्ग कभी विकास और समृद्धि की आत्मकेंद्रित महत्वाकांक्षाओं का चारा फंेकता है, तो कभी पंरपरा के जाल में फांसने की कोशिश करता है। जिस सांप्रदायिक पुनरुत्थान की कोशिशें विगत दो-ढाई दशक से जोरों से इस देश में जारी हैं, वीरेन डंगवाल की ‘पंरपरा’ उसका विरोध करती है। उन्होंने यह भी दिखाया है कि जयघोष करती उन्मत्त भीड़ को देखकर साजिशकर्ता डर भी जाते हैं। संकेत यह है कि जो जनता उनके सम्मोहन में है, उसके जीवन की परिस्थितियां अंततः उनके विरुद्ध ही ले जाएगी। इसीलिए ईश्वरीय मर्जी से दुनिया के चलने और बदलने की समझ तथा ईश्वर के करुणानिधान स्वरूप में आस्था रखने वाली चेतना को सहलाते हुए बालसुलभ अंदाज में वीरेन डंगवाल अपने तर्कों को रखते हैं और ईश्वर के कारनामों को बखानते हुए उसे गंभीर सवालों के घेरे में ले लेते हैं- नहीं निकली नदी कोई पिछले चार-पांच सौ साल से/ एकाध ज्वालामुखी जरूर फूटते दिखाई दे जाते हैं/ कभी कभार/ बाढ़ें तो आईं खैर भरपूर, काफी भूकंप, तूफान/ खून से हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब.... प्रार्थनागृह जरूर उठाए गए एक से एक आलीशान/ मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से/ वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुंबद-मीनार/ उंगली से छूत ही जिन्हें रिस आता है खून!/ आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर/ तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?’ कहना न होगा कि यह कविता ईश्वर के प्रति अविश्वास ही पैदा करती है और इस निष्कर्ष तक पहुंचती है कि हत्यारों की व्यवस्था को किसी ईश्वरीय आस्था के जरिए नहीं बदला जा सकता।
‘रात-गाड़ी’ में वीरेन दा विस्तार से मौजूदा मनुष्य विरोधी व्यवस्था का बेचैन कर देने वाला चित्रण करते हैं- ‘प्यास लगी होने पर एक ग्लास शीतल जल भी/ प्यार सहित पाना आसान नहीं/ बेगाने हुए स्वजन/ कोमलता अगर कहीं दिख गई आंखों में, चेहरे पर/ पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्ध और स्यार...... माया ने धरे कोटि रूप/ अपना ही मुल्क हुआ जाता परदेश।’
‘टेलीविजन
अखबार भाषा की खुजाती हुई बड़ी आंत
विश्वविद्यालय बेरोजगारों के बीमार कारखाना
गुंडों के मेले राजधानियां
कलावा बांधे गद्गद खल विदूषक
सोने के मुकुट पहनते उतरवा रहे हैं फोटो
प्राथमिक शाला के प्रांगण में
नाच रहा है विभोर विश्वबैंक का कार्याधिकारी
बावर्दी बेवर्दी हत्यारे
रौंद रहे गांव-गांव, नगर-नगर’
लेकिन इस यातनादायक यथार्थ को महसूस कर वीरेन डंगवाल की कविता निराशा या पलायन की दिशा नहीं अपनाती। उनकी कविता दो टूक कहती है-
देश बिराना हुआ मगर इसमें ही रहना है
कहीं ना छोड़ के जाना है इसे वापस भी पाना है (गप्प सबद)।
वापस पाने का यह संकल्प यूं ही हवा में नहीं है, बल्कि उसका मजबूत वैचारिक आधार और काव्यगत सरोकार भी है। कवि को उनकी परिवर्तनकारी ताकत में यकीन है जो बेहद सामान्य और नगण्य समझे जाते हैं। सामान्य जन के प्रति उद्धारक भाव से भरे कवियों से भिन्न हैं वीरेन डंगवाल। वे तो उनके प्रति कृतज्ञ हैं। वे लिखते हैं-
याद रखूंगा मैं पूरे संसार को ढोने वाली
नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत
जिसे अभी सही-सही अभिव्यक्त होना है’
(माथुर साहब को नमस्कार)।
‘घनीभूत और सुसंगठित होनी है उनकी वेदना अभी’
(रात-गाड़ी)
जहां उनकी सबसे कम जरूरत
जिन पर चलते सबसे कम मनुष्य
आखिर क्यों वही सड़कें बनी चौड़ी -चकली?
खुशबुएं बनाने का उद्योग
आखिर कैसे बन गया इतना भीमकाय
पसीना जबकि हो गया एक फटा उपेक्षित जूता
हमारे इस समय में
जबकि सबसे साबुत सच तब भी वही था।
इन नौजवानों से कैसे छीन लिया गया उनका धर्म
और क्यों भर जाने दिया उन्होंने अपने दिमाग में
सड़ा हुआ जटा-जूट-घास-पात?
कहां से चले आए ये गमले सुसज्जित कमरों के भीतर तक
प्रकृति की छटा छिटकाते
जबकि काटे जा रहे थे जंगल के जंगल
आदिवासियों को बेदखल करते हुए?
आखिर लपक क्यों लिया हमने ऐसी सभ्यता को
लालची मुफ्तखोरों की तरह? अनायास?
(तारंता बाबू से कुछ सवाल)
हमारे भीतर मौजूद जनतांत्रिक संवेदनशीलता को खत्म करने के लिए शासकवर्ग कभी विकास और समृद्धि की आत्मकेंद्रित महत्वाकांक्षाओं का चारा फंेकता है, तो कभी पंरपरा के जाल में फांसने की कोशिश करता है। जिस सांप्रदायिक पुनरुत्थान की कोशिशें विगत दो-ढाई दशक से जोरों से इस देश में जारी हैं, वीरेन डंगवाल की ‘पंरपरा’ उसका विरोध करती है। उन्होंने यह भी दिखाया है कि जयघोष करती उन्मत्त भीड़ को देखकर साजिशकर्ता डर भी जाते हैं। संकेत यह है कि जो जनता उनके सम्मोहन में है, उसके जीवन की परिस्थितियां अंततः उनके विरुद्ध ही ले जाएगी। इसीलिए ईश्वरीय मर्जी से दुनिया के चलने और बदलने की समझ तथा ईश्वर के करुणानिधान स्वरूप में आस्था रखने वाली चेतना को सहलाते हुए बालसुलभ अंदाज में वीरेन डंगवाल अपने तर्कों को रखते हैं और ईश्वर के कारनामों को बखानते हुए उसे गंभीर सवालों के घेरे में ले लेते हैं- नहीं निकली नदी कोई पिछले चार-पांच सौ साल से/ एकाध ज्वालामुखी जरूर फूटते दिखाई दे जाते हैं/ कभी कभार/ बाढ़ें तो आईं खैर भरपूर, काफी भूकंप, तूफान/ खून से हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब.... प्रार्थनागृह जरूर उठाए गए एक से एक आलीशान/ मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से/ वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुंबद-मीनार/ उंगली से छूत ही जिन्हें रिस आता है खून!/ आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर/ तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?’ कहना न होगा कि यह कविता ईश्वर के प्रति अविश्वास ही पैदा करती है और इस निष्कर्ष तक पहुंचती है कि हत्यारों की व्यवस्था को किसी ईश्वरीय आस्था के जरिए नहीं बदला जा सकता।
‘रात-गाड़ी’ में वीरेन दा विस्तार से मौजूदा मनुष्य विरोधी व्यवस्था का बेचैन कर देने वाला चित्रण करते हैं- ‘प्यास लगी होने पर एक ग्लास शीतल जल भी/ प्यार सहित पाना आसान नहीं/ बेगाने हुए स्वजन/ कोमलता अगर कहीं दिख गई आंखों में, चेहरे पर/ पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्ध और स्यार...... माया ने धरे कोटि रूप/ अपना ही मुल्क हुआ जाता परदेश।’
‘टेलीविजन
अखबार भाषा की खुजाती हुई बड़ी आंत
विश्वविद्यालय बेरोजगारों के बीमार कारखाना
गुंडों के मेले राजधानियां
कलावा बांधे गद्गद खल विदूषक
सोने के मुकुट पहनते उतरवा रहे हैं फोटो
प्राथमिक शाला के प्रांगण में
नाच रहा है विभोर विश्वबैंक का कार्याधिकारी
बावर्दी बेवर्दी हत्यारे
रौंद रहे गांव-गांव, नगर-नगर’
लेकिन इस यातनादायक यथार्थ को महसूस कर वीरेन डंगवाल की कविता निराशा या पलायन की दिशा नहीं अपनाती। उनकी कविता दो टूक कहती है-
देश बिराना हुआ मगर इसमें ही रहना है
कहीं ना छोड़ के जाना है इसे वापस भी पाना है (गप्प सबद)।
वापस पाने का यह संकल्प यूं ही हवा में नहीं है, बल्कि उसका मजबूत वैचारिक आधार और काव्यगत सरोकार भी है। कवि को उनकी परिवर्तनकारी ताकत में यकीन है जो बेहद सामान्य और नगण्य समझे जाते हैं। सामान्य जन के प्रति उद्धारक भाव से भरे कवियों से भिन्न हैं वीरेन डंगवाल। वे तो उनके प्रति कृतज्ञ हैं। वे लिखते हैं-
याद रखूंगा मैं पूरे संसार को ढोने वाली
नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत
जिसे अभी सही-सही अभिव्यक्त होना है’
(माथुर साहब को नमस्कार)।
‘घनीभूत और सुसंगठित होनी है उनकी वेदना अभी’
(रात-गाड़ी)
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 30 मई 2020 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
वीरेन जी की कविताएँ दम तोड़ते समाज में जीवन का एक नया दम भरने की आस जगाती है। इतनी सुंदर समीक्षा का साधुवाद!
ReplyDeleteनमन वीरेंद्र जी को। सुन्दर समीक्षा।
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