Friday, June 14, 2013

मैं तो मर के भी तुझे चाहूँगा (मेहदी हसन के पहले स्मृति दिवस पर) : सुधीर सुमन

13 जून 2012 को उस्ताद मेहदी हसन का निधन हुआ था, पर पिछले एक साल में कभी नहीं लगा कि वे हमारे बीच नहीं हैं। वैसे भी पिछले कई वर्षों से वे गा नहीं रहे थे, इसके बावजूद वे हमारे स्मृतियों के किसी तलघर में नहीं चले गए थे, बल्कि हमारे रोजमर्रा के जीवन में वे गहरे रचे-बसे हुए थे और आगे भी रहेंगे। आज बाजार आए दिन नई नई आवाजें उछालता रहता है, नए नए आकर्षणों को बड़ी धूम से प्रचारित करता है, लेकिन वे आवाजें बहुत देर तक हमारे दिलो दिमाग या जीवन में टिक नहीं पातीं, मेहदी हसन की आवाज मानो इस प्रवृत्ति को चुनौती देती है, वह मानो कहती है कि मैं कोई उपभोक्तावादी लहर से पैदा उत्पाद नहीं हूं, मैं तो मनुष्य के जीवन और संस्कृति के गहरे अनुभवों और उसकी सृजनात्मक शक्ति की अभिव्यक्ति हूं। कुछ जो शाश्वत भावनाएं हैं, जिनसे तमाम कलाएं जन्मी और विकसित हुई, उसकी अभिव्यक्ति की जो परंपरा है उसी की बेमिसाल देन हूं। मुझमें अपनी मिट्टी, अपने जल, अपनी जबान और अपने जैसे हजारो-लाखों लोगों का हाल-ए-दिल दर्ज है। इसीलिए तो बहुत सीधे और सहज तरीके की गजल ‘मुझे तुम नजर से गिरा तो रहे हो, मुझे तुम कभी भी भूला न सकोगे’ को जब हम मेहदी हसन की आवाज में सुनते हैं, तो वह सिर्फ किसी प्रेमी की उपेक्षा की पीड़ा और इस दावेदारी की गजल नहीं रह जाती कि उपेक्षा के बावजूद प्रेमी की वफा में इतनी ताकत है कि उसे भुलाया नहीं जा सकता, बल्कि उसमें वफा के बावजूद उपेक्षित और वंचित किए जाने की जाने कितनी दास्तानें जुड़ जाती हैं। 
भारत-पाकिस्तान के रिश्ते के संदर्भ में अहमद फराज की गजल ‘रंजिश ही सही’ जरूर ज्यादा लोकप्रिय रही, शायर अहमद फराज से भी इसे सुनाने की अक्सर फरमाइशें की जाती थीं और वह भी कबूल करते थे कि यह तो मेहदी हसन की गजल हो गई है। लेकिन ‘मुझे तुम नजर से गिरा तो रहे हो’ को सुनते हुए अक्सर मुझे लगता है, मानो इसमें उन करोड़ों लोगों के विषाद का इजहार हो रहा है, जिन्होंने इस देश और इसकी संस्कृति को रचने में साझी भूमिका निभाई, मगर इतिहास के एक खास मोड़ पर अपने मादर-ए-वतन के प्रति ही गैर वफादार करार दिए गए। खुद मेहदी हसन की जिंदगी को विभाजन की इस त्रासदी के बगैर समझा नहीं जा सकता। राजस्थान के अपने गांव और पूरे भारत के प्रति उनके जबर्दस्त लगाव की कुछ घटनाओं की चर्चा लोग करते रहे हैं। कई बार लगता ही नहीं कि उनके द्वारा गायी गई गजल में (भले वह किसी फिल्म के लिए क्यों न गाई गई हो) महज कोई नायक किसी नायिका के प्रति संबोधित है। इसी गजल की अगली पंक्तियां हैं- न जाने मुझे क्यों यकीन हो चला है, मेरे प्यार को तुम मिटा न पाओगे/ मेरी याद होगी, जिधर जाओगे तुम, कभी नग्मा बनके कभी बनके आंसू। मेहदी हसन को सुनते हुए कभी नहीं लगता कि भारत और पाकिस्तान दो भिन्न मुल्क हैं, बल्कि ऐसा महसूस होता है कि हम बिल्कुल अभिन्न हैं। 
अकारण नहीं है कि भारत में मुस्लिम विरोध और पाकिस्तान विरोध के जरिए अंधराष्ट्रवादी व सांप्रदायिक उन्माद भड़काए जाने की जो राजनीति रही है, उसका प्रतिकार करने वालों को जाने-अनजाने मेहदी हसन की आवाज बेहद सुकून प्रदान करती रही है। वे हमारे लिए हमारी साझी संस्कृति के बहुत बड़े प्रतिनिधि थे। मैंने खुद नब्बे के दशक की शुरुआत में जो पहला कैसेट खरीदा था, वह मेहदी हसन का था, जिसमें शोला था जल बुझा हूं, रंजिश ही सही, जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं आदि मशहूर गजलें थीं। बीस साल की उम्र में पहली बार देश की राजधानी दिल्ली एक रेडियो प्रोग्राम के सिलसिले में आया था और यहां से लौटते वक्त वह कैसेट और चांदनी चौक से एक सस्ता सा वाकमैन खरीद कर ले गया। वाकमैन तो जल्द ही खराब हो गया, पर वह कैसेट आज भी मेरे एक जिगरी दोस्त के पास सुरक्षित है।
हमारी पीढ़ी को फैज, फराज, मीर और दाग जैसे शायरों से जोड़ने वाले मेहदी हसन ही थे। उन्होंने इन शायरों की जिन गजलों का चुनाव किया, उसे सुनते हुए हम न केवल साहित्य की बेमिसाल परंपरा से जुड़े, बल्कि आधुनिक और प्रगतिशील भावबोध भी हमारे भीतर घुलता गया। अक्सर यह बात जो मन में चलती रहती है कि हिदी उर्दू की पढ़ाई अलग-अलग नहीं, बल्कि एक साथ होनी चाहिए, तो इसके पीछे भी मेहदी हसन जैसे गायकों की भी बड़ी भूमिका है, जिन्होंने अपनी गायकी के सहारे हमें इन महान शायरों की रचनाओं की खासियत से रूबरू कराया। 
मेहदी हसन के गुजर जाने के बाद उनके द्वारा गायी गई अपने पसंद की गजलों को याद करने लगा, तो तुरत दो दर्जन से अधिक गजलें जुबान पर आ गईं। मुझे महसूस हुआ कि दूसरे किसी गायक द्वारा गाई गईं पसंदीदा गजलों से यह संख्या अधिक है। बल्कि मीर, फैज, गालिब और अहमद फराज को छोड़ दें तो कई गजलों के शायरों का नाम भी जेहन में कम ही रहता है। यकीन से भरी और हौले से अपने भरोसे में लेने वाली मेहदी हसन की आवाज का जादू ही सर्वोपरि होता है, जो उन शायरों की रचनाओं में मौजूद भावनाओं और अर्थों की बारीकियों को अत्यंत कुशलता से खोलते हुए, हमारे भाव-जगत से बेहद आत्मीय संवाद करता है। कई बार तो उनके द्वारा गायी गई किसी पसंदीदा गजल के शायर का नाम जब पता चलता है, तो हम एक अजीब सी खुशी से भर उठते हैं। ऐसा ही मेरे साथ ‘रोशन जमाले यार से है अंजुमन तमाम’ गजल सुनते हुए हुआ। मैं उन्हीं के अंदाज में इसे दोस्तों के बीच गाता भी रहा हू, लेकिन शायर का नाम ही पता नहीं था। अभी कुछ महीने पहले खुद मेहदी हसन के एक प्रोग्राम की रिकार्डिंग सुनते हुए मुझे पता चला कि इसके रचनाकार हसरत मोहानी हैं, वही चुपके चुपके रात दिन वाले हसरत मोहानी, आजादी के आंदोलन की इंकलाबी शख्सियत हसरत मोहानी। इसी तरह इंकलाबी शायर हबीब जालिब की मशहूर गजल ‘दिल की बात लबों पर लाकर अब तक हम दुख सहते हैं’ को अपनी आवाज के जरिए मकबूल बनाने और बहुतों के दिल की आवाज का बयान बना देने का श्रेय भी मेहदी हसन को ही जाता है। मीर की गजल ‘पत्ता पत्ता बुटा बुटा हाल हमारा जाने है’ को जब मेहदी हसन की आवाज में पहली बार सुना, तो लगा कि इससे बेहतर कोई और नहीं गा सकता। और अपने अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की गजल- ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’ हो या फिर मीर की ‘देख तो दिल कि जां से उठता है/ये धुंआ सा कहां से उठता है’ और दाग की ‘गजब किया तेरे वादे पे एतबार किया’, ऐसा लगता है कि ये गजलें मेहदी हसन की आवाज के लिए ही बनी थीं। जहां तक गुलों में रंग भरे और शोला था जल बुझा हूं सरीखी फैज और फराज की कई गजलों की मकबूलियत की बात है, तो इसमें मेहदी हसन की आवाज की भी बहुत बड़ी भूमिका है। यद्यपि गालिब की गजल दिले नांदा तुझे हुआ क्या है मेहदी हसन की आवाज में मुझे व्यक्गित तौर पर उतनी प्रभावशाली नहीं लगती, लेकिन यह एक अपवाद है। परवीन शाकिर की गजल कूबकू फैल गई मेहदी हसन की आवाज में गाई गई ऐसी गजल है, जिसे अब भी खूब पसंद किया जाता है। मिलन की खुशी- (यूं जिंदगी की राह में टकरा गया कोई, दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं) और बिछड़ने का गहरा दर्द- (अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिले, हमें कोई गम नहीं था गमे आशिकी से पहले) जिस गहराई से इस आवाज में अभिव्यक्त होता है, वह इसे श्रोताओं का बेहद आत्मीय बनाता है। एक गजल है- इलाही आंसू भरी जिंदगी किसी को न दे/ खुशी के बाद गमे-बेकसी किसी को न दे। अपने एक प्रिय कामरेड के संग्रह में से मैंने इसे पहली बार सुना था और लंबे समय तक समझता रहा कि यह गालिब की गजल होगी। लेकिन हाल में पता चला कि इसे मशरूर अनवर ने लिखा था और पाकिस्तानी फिल्म ‘हमे जीने दो’ के लिए मेहदी हसन ने इसे गाया था। मैं अक्सर यह भी सोचता रहा हूं कि मेरे साथी जो अपने साथियों के निजी दुखो को जाहिर करने को बहुत अहमियत नहीं देते थे और खुद भी अपने दुखों की झलक आज भी किसी को नहीं लगने देते, उनके संग्रह में यह गजल क्यों है? क्या यह इसे सुनते हुए कोई कथार्सिस होता है, जैसे जो हमारे दुख अभिव्यक्त नहीं हो पाते, जो हमारे अंदर घर किए रहते हैं, इस गजल को सुनते हुए मानो हम उनसे मुक्त होते हैं। जिस अंदाज मे मेहदी हसन गाते हैं- उजाड़ के मेरी दुनिया को रख दिया तूने, मेरे जहान के मालिक ये क्या किया तूने, वह दुख और शिकायत की इंतहा लगती है। अब इलाही या जहान के किसी मालिक की अवधारणा में भले ही किसी का यकीन न हो, पर दुनिया उजड़ने के दुख का श्रोताओं के अपने दुख से बिल्कुल तादात्म्य हो जाता है। उजड़ने और बिछड़ने का गम मेहदी हसन की आवाज में बड़ी असरदार तरीके से सामने आता है। और यह गम मानो वफा पैमाना भी है। फराज की गजल में जब वे गाते हैं- ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफा के मोती/ ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिले, तो इसे साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। 
वह आवाज आज भी गूंज रही है- जिदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मरकर भी मेरी जान तूझे चाहूंगा। यह कोई भाववाद नहीं या किसी अपार्थिव सत्ता में कोई यकीन नहीं, बल्कि तमाम दुश्वारियों के बीच अपने होने का यकीन है। एक जिंदगी जिस जमीन और मिट्टी से विस्थापित हुई, जिसके बीच सरहदों की दीवारें खींच गईं, उसकी बाड़ाबंदियों को तोड़ती हुई, मरके भी उसी की खुश्बू में शामिल होने की यकीन है मेहदी साहब की आवाज।

1 comment:

  1. "वह आवाज आज भी गूंज रही है- जिदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मरकर भी मेरी जान तूझे चाहूंगा। यह कोई भाववाद नहीं या किसी अपार्थिव सत्ता में कोई यकीन नहीं, बल्कि तमाम दुश्वारियों के बीच अपने होने का यकीन है। एक जिंदगी जिस जमीन और मिट्टी से विस्थापित हुई, जिसके बीच सरहदों की दीवारें खींच गईं, उसकी बाड़ाबंदियों को तोड़ती हुई, मरके भी उसी की खुश्बू में शामिल होने की यकीन है मेहदी साहब की आवाज।"
    मन लगा के लिखे हैं मरदे.....मजा आ गया। ऐसे ही कुछ देते रहिए, बीच-बीच

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